राष्ट्र हेतु संयम

वर्ष 1926 की बात है। गांधी जी दक्षिण भारत की यात्रा पर थे। उनके साथ काकासाहेब कालेलकर भी थे। वे सुदूर दक्षिण में नागर-कोइल पहुंचे। वहां से कन्याकुमारी काफ़ी पास है।

इस दौरे के पहले के किसी दौरे में गांधी जी कन्याकुमारी हो आए थे। गांधी जहां ठहरे थे, उस घर के गृह-स्वामी को बुलाकर उन्होंने कहा, ‘काका को मैं कन्याकुमारी भेजना चाहता हूं। उनके लिए मोटर का प्रबंध कर दीजिए।’

कुछ देर के बाद उन्होंने देखा कि काकासाहेब अभी तक घर में ही बैठे हैं, तो उन्होंने गृहस्वामी को बुलाया और पूछा, ‘काका के जाने का प्रबंध हुआ या नहीं?’ किसी को काम सौंपने के बाद उसके बारे में दर्याफ़्त करते रहना बापू की आदत में शुमार नहीं था।

काकासाहेब ने बापू से पूछा, ‘आप भी आएंगे न?’ बापू ने कहा, ‘बार-बार जाना मेरे नसीब में नहीं है। एक दफ़ा हो आया इतना ही काफ़ी है।’ इस जवाब से काकासाहेब को दु:ख हुआ।

वे चाहते थे कि बापू भी साथ जाएं। बापू ने काकासाहेब को नाराज देख कर गंभीरता से कहा, ‘देखो, इतना बड़ा आंदोलन लिए बैठा हूं। हज़ारों स्वयंसेवक देश के कार्य में लगे हुए हैं।

अगर मैं रमणीय दृश्य देखने का लोभ संवरण न कर सकूं, तो सबके सब स्वयंसेवक मेरा ही अनुकरण करने लगेंगे। मेरे लिए संयम रखना ही अच्छा है।’

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