ज्ञान से धनार्जन
हिंदी साहित्य के महान कवि बाबा नागार्जुन ने किशोर अवस्था से ही अपनी प्रतिभा को दिखाना शुरू कर दिया था। महाविद्यालय के दौर का एक किस्सा सन् 1934 के आसपास का है। बाबा नागार्जुन तब युवा थे और काशी में अध्ययन कर रहे थे।
उसी दौर में एक दिन उनके मामा घर आए और कहने लगे, ‘तुम हमारे साथ कलकत्ता चलो तो वहां पढ़ाई भी होगी और कुछ कमाई भी।’ पढ़ाई करने की धुन में नागार्जुन मामाजी के साथ कलकत्ता आ गए। वहां जिस नामी संस्कृत कॉलेज में दाखिला लिया, कभी महान विचारक ईश्वरचंद विद्यासागर उसके प्राचार्य रह चुके थे।
नागार्जुन के लिए वहां पढ़ना प्रतिष्ठा की बात थी। कॉलेज में उन्हें पता चला कि प्रतिभावान विद्यार्थी को छात्रवृत्ति मिल सकती है, लेकिन इसका निर्णय प्रिंसिपल लेते हैं।
यह सुनकर बाबा नागार्जुन ने तुरंत पांच छंद लिखे और उनमें प्रिंसिपल का नाम भी ऐसे शामिल कर दिया कि उस नाम का एक अर्थ प्रिंसिपल की प्रशंसा में जबकि दूसरा अर्थ छंद की महत्ता के रूप में निकल रहा था।
इस प्रतिभा से प्रिंसिपल बहुत प्रभावित हुए और नागार्जुन के लिए तुरंत छात्रवृत्ति स्वीकृत कर दी। वह भी पूरे 15 रुपये, जिसमें से 5 रुपये में वे खुद का गुजारा चलाते, 5 रुपये अपने गांव पिताजी को भेजते और 5 रुपये पुस्तकें खरीदने में खर्च करते। पिता को भेजे 5 रुपये पर पूरा गांव गर्व करता था कि ‘छोरा कलकत्ता जाकर कमाने लग गया है!’