इनसानियत का धर्म
एक बार विनोबा भावे ने मां को आवाज दी और कहा कि मां भूख से पेट में चूहे कूद रहे हैं, रोटी दो। लेकिन कोई जवाब ना मिलने पर विनोबा ने इधर-उधर मां को खोजा और पाया कि उनकी मां बीमार पड़ोसी को गर्मागर्म दाल-रोटी परोस कर फिर अपने घर पर आकर विनोबा और भाई -बहनों को भोजन देने की बात कह रही हैं।
विनोबा एकदम खीझ कर बोले, ‘मां आप ऐसा दोगला बर्ताव करती हो।’ मां ने विनोबा से कहा, ‘विनोबा आज पड़ोसी बीमार और लाचार है। मुझ पर उम्मीद लगाये हैं, अगर आज मैं बासी और ठंडा भोजन परोस दूंगी तो कल अपने आपको माफ नहीं कर सकूंगी।
’ विनोबा ने अपनी मां का यह गुण तत्काल ग्रहण किया और यह बात गांठ बांध ली कि अपने शरीर को तो रोजाना भोजन मिलता रहता है, पर क्या हम औरों के साथ ऐसा महसूस करते हैं? क्या किसी की मदद करते हुए कभी कुछ खास दिनों में भोजन देने का मौका मिलता है?
दुनिया तमाम अमीर-उमरा से पटी पड़ी है। मंत्री-संतरी हैं, बलिष्ठ और धनवान भी हैं। ये अपनी लजीज पकवानों की सारी चाह चट पूरी कर लेते हैं, पर दूसरों की दो रोटी की खुशी पूरी करने में इन्हें बहुत बार गरीब पाया गया है।
आज इनसानियत हमसे त्याग, समर्पण, धैर्य, संवेदना, भाईचारा, बराबरी, सत्य और सहिष्णुता की खुराक ही मांगती है।