पवित्र असत्य
देश में सामाजिक बदलाव के अग्रदूत ईश्वरचन्द्र विद्यासागर जहां सामाजिक जीवन में प्रतिबद्ध थे, वहीं दीन-दुखियों की मदद के लिये हरदम तैयार रहते थे। एक बार उनके संज्ञान में आया कि समाज के लिये परोपकार और पुण्य करने वाला एक व्यक्ति बेहद निर्धनता के बीच चल बसा है।
यहां तक कि उसकी पत्नी के पास उसके अंतिम संस्कार के भी पैसे नहीं हैं। इस समाचार ने ईश्वरचंद विद्यासागर को विचलित कर दिया। वे उसको जानते तक न थे और न ही उसके घर का पता था।
लेकिन ईश्वरचंद्र विद्यासागर लोगों से पूछते-पूछते उस व्यक्ति के घर पहुंचे। उन्होंने उसकी पत्नी को सांत्वना दी। उन्होंने कहा कि वे उसके पति के पुराने मित्र हैं और उनसे कुछ पैसे उधार लिये थे, आज देने आया था तो पता चला वो आज इस दुनिया में नहीं हैं। कृपया ये कुछ पैसे रख लें। बाकी मैं फिर चुका दूंगा।
विधवा ने वह राशि ले ली और रीति-रिवाज से पति का अंतिम संस्कार कर दिया। भविष्य में भी ईश्वरचंद्र विद्यासागर उस विधवा को पैसे भेजकर मदद करते रहे।
एक बार किसी तरह विधवा को पता चला कि सही में विद्यासागर उसके पति के मित्र नहीं थे, वे तो बस एक अनजान व्यक्ति के परिवार की मदद कर रहे थे।
वह महिला ईश्वरचंद्र विद्यासागर से मिली और पूछा–‘आपने झूठ क्यों बोला?’ इस पर ईश्वरचंद्र विद्यासागर का जवाब था–‘यदि मानवता के लिये झूठ भी बोला जाये तो वह पवित्र होता है।’