पूर्ण इच्छा-मुक्ति ही, सही परम-वैराग्य

दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम्।।

विषयों से विरक्ति तो आरम्भिक-वैराग्य है; पूर्ण इच्छा-मुक्ति ही, सही परम-वैराग्य है।

पतंजलि वैराग्य को भी दो हिस्सों में विभाजित करते हैं। एक आरम्भिक वैराग्य, जिसे वे कहते हैं वशीकार वैराग्य और दूसरा परम वैराग्य। एक को अपर और दूसरे को परवैराग्य कहते हैं।

एक तो है आसक्ति, दूसरा है विरक्ति। सामान्य सांसारिक व्यक्ति विषयों के प्रति आसक्ति से, राग से भरा है। राग अर्थात लगाव। वह समझता है कि उसे जो सुख की प्राप्ति हो रही है, वो बाह्य विषयों के कारण हो रही है। आसक्ति हमेशा सुख के कारण होती है, भले ही हमारे समझने में भूल हो।

हम समझते हैं कि बाह्य विषयों से हमारे जीवन में सुख आ रहा है। फलस्वरूप विषयों के प्रति आसक्ति बढ़ती चली जाती है, तब हम और ज्यादा विषयों में उलझ जाते हैं, फंस जाते हैं।

यद्यपि मिलता केवल दुख ही है। लेकिन यह तो वे जान पाएंगे, जो सजग होकर देखेंगे। मूर्च्छा में पता ही नहीं चलता। जहां-जहां सुख मिलता है, जरा गौर से सचेतन होकर देखना… हम अपने जीवन के सुख और दुख ठीक-ठीक निरीक्षण करें- वास्तव में सुख कहां से आ रहा है? वह पता लग जाए, तो हम अपने स्वभाव में स्थित हो जाएं।

तो वह तो हो जाएगा- परम वैराग्य; जब हम आनंद के वास्तविक स्रोत को पहचान लेंगे। लेकिन उससे पहले दुख के स्रोत को तो पहचानें, जिससे पीड़ा हो रही है।

बुद्ध कहते थे तृष्णा दुष्पूर है, कभी पूरी होती ही नहीं। जैसे कोई आदमी क्षितिज पकड़ने को चले! दिखता है कि क्षितिज होगा कोई तीन-चार किलोमीटर दूर; पर हम कितना भी भागें, कितना ही दौड़ें, क्षितिज तक कभी नहीं पहुंच पाते; वह सिर्फ एक आभास मात्र है। सारी तृष्णाएं ऐसी ही हैं। एक में से और दस तृष्णाएं निकल आती हैं।

वासना के स्वभाव को पहचानना, जिनसे सिर्फ दुख मिलता है। तब वैराग्य उत्पन्न होता है- वशीकार वैराग्य- यह वैराग्य की आरम्भिक अवस्था है।

तुम ऐंद्रिक सुख की मांग क्यों करते हो? क्यों मन सदा इंद्रिय भोगों के बारे में सोचता रहता है? कारण यह है कि तुम भीतर आनंदित नहीं होते हो, इसलिए ऐंद्रिक सुख के लिए इच्छा होती है।

सुखोन्मुख का अर्थ है कि जैसे तुम हो, अपने भीतर तुम आनंदित नहीं हो। इसीलिए तुम सुख को कहीं और ही खोजते चले जाते हो।

बेशक, यह मन कहीं सुख नहीं पा सकता। ज्यादा से ज्यादा यह थोड़ी झलक पा सकता है। सुख का अर्थ होता है प्रसन्नता की झलकियां। और, यह भ्रम है कि मन सोचता है कि ये झलकियां और सुख कहीं और से, बाहर से आ रहे हैं। पर वे हमेशा भीतर से आते हैं।

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