संभालना जरूरी

यह सच है कि सोशल मीडिया पर हर पल साझा की जा रही चिंतनीय और पीड़ादायी ख़बरों के साथ ही असल दुनिया में भी मायूसी का आलम है। हर चेहरे पर फिक्र भरी उदासी छायी है। आने वाले कल की चिंता हर मन को घेरे है। चाहते हुए भी अपनों की मदद न कर पाने का दुःख हर पीड़ा से बढ़कर है। पर यह भी है कि इन स्याह दिनों में प्रकाश की किरण भी हमारे ही मन से फूट सकती है। जब रास्ता गुम है, उम्मीद की पगडंडी भी हम खुद ही तलाश सकते हैं। इसीलिए यह पूरी ऊर्जा जुटाकर खड़े होने का समय है। मन के हर कोने को जिजीविषा से पूरित रखने का दौर है। स्पर्श के बिना भी मजबूती से हाथ लेने का वक्त है। हर मोर्चे पर डट जाने और जिंदगी के हर पहलू को सहेजने की खास कोशिशें करने का वक्त है। विशेषकर थक रहे मन को संभालने का जतन बेहद जरूरी है।
इस थकान को समझिये- महामारी से उपजी यह थकान ‘पेंडेमिक फटीग’ है। तन-मन को थकाने वाली यह स्थिति तब आती है, जब लोग महामारी से बचाव के उपायों को अपनाते हुए थक जाते हैं। किसी आपदा का सामना करते-करते इंसान का मन और शरीर दोनों ऊब जाते हैं। ऐसे में स्वास्थ्य सहेजने के सार्वजनिक नियम कायदों का पालन करने की संभावना कम हो जाती है। ‘बर्नआउट’ की ऐसी स्थिति तब बहुत ज्यादा तकलीफदेह हो जाती है, जब जनता को लंबे समय तक सार्वजनिक स्वास्थ्य उपायों को अपनाना पड़ता है।

कोरोना की दूसरी लहर में बढ़ रहे आंकड़ों के बीच सख्ती के बावजूद नियमों का पालन न करने की शिकायतें भी आ रही हैं। ऐसे में बीते एक साल में उपजी शारीरिक, मानसिक और मनोवैज्ञानिक थकान के पहलुओं को भी समझना जरूरी है। यह थकान बीते एक वर्ष में अचानक भय, भ्रम और हर पल की सतर्कता आमजन के हिस्से आने के चलते पैदा हुई है। दरअसल, मौजूदा हालात में पेंडेमिक फटीग को समझना इसलिए भी जरूरी है कि कोरोना संक्रमण से लड़ाई अभी जारी है। संकट अभी टला नहीं है। इस समय आम लोगों को अपनी पूरी ऊर्जा जुटाकर दिशा-निर्देशों का पालन करना होगा। थकते ऊबते दौर में भी कोई कोताही न करने की ठान लेना जरूरी है। इस वैश्विक संकट की मुसीबत से पार पाने तक इस थकान को मन की ऊर्जा से हराना आवश्यक है।

कोरोना के नये स्ट्रेन से भयावह होते हालात के बीच महामारी से उपजी थकान हर किसी के लिए अलग तरह का अनुभव साथ ला रही है। उम्र, लिंग और यहां तक कि जिम्मेदारियों के मुताबिक भी यह थकान लोगों पर अलग-अलग असर डाल रही है। लेकिन बेचैनी, चिड़चिड़ापन, निराशाजनक सोच और काम पर ध्यान न दे पाने जैसी कठिनाइयां तो सभी के हिस्से हैं। युवा और बच्चे इस समय अपने दोस्तों, सहपाठियों और हमउम्र साथियों से दूर होकर अकेलेपन का अहसास कर रहे हैं, तो वरिष्ठजन अपने सामाजिक जुड़ाव की कमी और मेल-मिलाप की दूरी से अवसाद और व्यग्रता के शिकार हो रहे हैं।

ऐसे हालात बच्चों और बड़ों दोनों के मन को थकाने वाले हैं। इस तकलीफदेह दौर में आर्थिक मोर्चे पर डटे कामकाजी महिला-पुरुष अपनी नौकरी को लेकर एक अनिश्चितता और फिक्र की उलझन में थक रहे हैं, तो गृहिणियों की हद दर्जे तक बढ़ी व्यस्तता उनके मन को थका रही है। ऐसे में इस आपदाकाल में हर किसी के लिए यह समझना जरूरी है कि पेंडेमिक फटीग किस तरह से प्रभावित कर रही है। इसके बाद हालात को समझकर ऐसी राहें तलाशें जो इस ठहरे हुए समय में भी मन-जीवन को गतिमान रख सकें।

बीते साल कोरोना से जूझते हुए सोशल आइसोलेशन के चलते सभी ने कुछ हद तक भटकाव, अलगाव और अनिश्चितता का अनुभव किया है। कई लोग संक्रमण पर जीत हासिल करने के बाद भी समस्याओं का शिकार हुए, तो
zकई परिवारों ने अपने करीबियों को खो दिया है। साथ ही पढ़ाई, रोजगार और आम दिनचर्या में आये बदलावों ने हमें बहुत सी चीज़ों से दूर कर दिया है। जिंदगी जीने का रंग ढंग बहुत बदल गया है।

यह सही है इन दिनों जिंदगी से बहुत कुछ छूट रहा है, लेकिन यह बात कहीं ज्यादा सही है कि जिंदगी सहेज ली तो फिर कुछ नहीं छूटा। फिलहाल कुछ छूटने की चिंता नहीं बल्कि जीवन सहेजने के आश्वासन को मन में जगह देना जरूरी है। ऐसा पहली बार हुआ है जब दुनिया भर के लोगों ने असहायता और चिंता की ऐसी परेशानी को झेला है। पहली बार ऐसी विरोधाभासी स्थिति को जिया है, जब करने को कुछ नहीं पर ऊर्जा भी रीत रही है। जिंदगी ठहर गई है पर जिम्मेदारियों की भागमभाग भी कायम है।

आपसी मेलजोल बंद है पर साथ देने और साथ बने रहने की दरकार भी कम नहीं। इस एक साल में हर उम्र के लोगों की गतिविधियां रुक सी गई हैं। ऐसे में समझना मुश्किल नहीं कि जिंदगी जिस सहज गति से चल रही थी, उसमें आई रुकावट तो थकावट लाएगी ही।इन संकटकालीन परिस्थितियों को अच्छे से समझ कर तन-मन को घेर रही थकान से बचने की राह निकालनी होगी।

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