सत्य की राह

एक शिष्य ने गुरु से पूछा, ‘क्या हमें मर्यादा के अनुसार ही पूरा जीवन जीना चाहिए?’ गुरु ने गंभीर होकर कहा, ‘जिसकी दृष्टि दूसरों पर है, वही ऐसा सोचता है कि लोग क्या कहेंगे? उसे स्वयं की फ़िक्र नहीं होती, वह तो दूसरों की ही फ़िक्र लेता है, ऐसा व्यक्ति अधार्मिक व्यक्ति है, अभी इसने धर्म जाना ही नहीं।

लोग क्या कहेंगे, जो इसकी फ़िक्र लेता है। यानी जो लोगों के हिसाब से चलता है, वह कहीं भी नहीं पहुंच सकेगा, उसे कभी भी सत्य उपलब्ध न हो सकेगा। जिसने भीड़ की चिंता की, वह भीड़ में सम्मिलित हो गया, वह भीड़ ही बन गया, भीड़ कहीं भी नहीं पहुंच पाती, भीड़ को कभी भी शांति उपलब्ध नहीं हो पाती, भीड़ तो उत्पात ही कर सकती है।

व्यक्ति ही शांत हो सकता है, व्यक्ति ही सत्य को उपलब्ध हो सकता है। स्वयं को ही देखें, दूसरे को नहीं, कोई क्या कहता है, इसकी चिंता करने की कोई आवश्यकता ही नहीं, जिसने जीवन को इस भांति जीया, वही सही रास्ते पर चला, उसे ही सत्य उपलब्ध हुआ!’

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