अनुकरणीय सहनशीलता

गांधी जी उन दिनों काशी में थे। एक दिन वह काशी विश्वनाथ मंदिर में दर्शनार्थ गए। उस समय गांधी जी उतने धार्मिक नहीं थे। मंदिर में कुछ चढ़ाने के भाव भी नहीं थे मगर पुजारी कहां मानते हैं।

उन्होंने गांधी जी से भी कहा तो उन्होंने बेमन से एक पैसा चढ़ा दिया। एक पैसा देखते ही पुजारी तमतमा उठा और उनका सिक्का उठाकर फेंक दिया। फिर दो चार अपशब्द सुनाते हुए बोला-भगवान का अपमान करने वाला कभी सुखी नहीं रहता, तू भी नरक में जाएगा। गांधी जी ने अपना सिक्का उठाया और बोले-महाराज, आपको यूं गालियां देना शोभा नहीं देता।

नहीं चाहिए तो प्रेम से वापस कर देते। फिर गांधी जी ने सिक्का जेब में रख लिया और माना कि पुजारी ने अपना पैसा खोया और मैंने बचाया। लाभ में मैं ही रहा।

उधर पुजारी ने गांधी जी को जाते देखा तो फिर आवाज़ लगाकर उन्हें बुलाया और कहा-ला दे अपना सिक्का, वरना तेरा कुछ भी अशुभ हो सकता है। गांधी जी ने उसकी गालियां खाकर भी सिक्का उसे पकड़ा दिया। उनकी सहनशीलता का यह छोटा-सा उदाहरण भी अनुकरणीय है।

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