हादसों से सबक

मंगलवार को मध्य प्रदेश के सीधी जिले में हुए बस हादसे में पचास से अधिक लोगों की मौत ने पूरे देश को विचलित किया। सोमवार को महाराष्ट्र के जलगांव में ट्रक पलटने से पंद्रह श्रमिकों की मौत तथा इससे पहले आंध्र प्रदेश में बस हादसे में 14 जायरीनों की मौत की खबर ने व्यथित किया।

यह बेहद दुखद है कि निर्दोष लोग दूसरों की लापरवाही और तंत्र की काहिली से मारे जाते हैं। परिवहन तंत्र और यातायात पुलिस में व्याप्त भ्रष्टाचार और संवेदनहीनता निर्दोष लोगों को मौत बांटती है।

सीधी बस हादसा तंत्र की नाकामी को तब बेनकाब कर देता है जब कहा जाता है कि बस को कंडम श्रेणी में घोषित किया गया था। इसके बावजूद बस सड़क पर उतारी गई। जिस बस में तीस यात्रियों की क्षमता थी, उसमें साठ  से अधिक लोग सवार थे। जिस रूट पर बस दुर्घटनाग्रस्त हुई, वह उसका रूट नहीं था।

बताते हैं कि चालक ने मुख्य रास्ते में जाम की वजह से रास्ता बदला। यात्रियों को डुबोकर चालक बाहर निकल आया। उसके पास लाइसेंस नहीं था। उसकी दलील थी कि एक लाइसेंस नदी में बह गया। दूसरा लाइसेंस रीवा में और गाड़ी के कागज सतना में हैं।

कहना कठिन है कि उसके पास पर्याप्त कागज थे भी कि नहीं। निस्संदेह, हर हादसे में लापरवाही खुलकर सामने आती है। आखिर ट्रकों में सामान के साथ यात्रियों को बैठने से क्यों नहीं रोका जाता? देश में हर साल लाखों लोगों का दुर्घटना का शिकार होना जहां हमारी चिंता का विषय है, वहीं शर्म का भी विषय है। हर बार लापरवाही से होने वाले हादसों के बावजूद हमारी आंखें नहीं खुलतीं।

सड़क सुरक्षा के दावे और सड़क सुरक्षा सप्ताह व महीना मनाने के भी कोई सार्थक परिणाम सामने नहीं आते। निगरानी करने वाला तंत्र हमेशा आंखें मूंदे बैठा रहता है। सरकारें मृतकों के आश्रितों को मुआवजा देने की घोषणा करके  अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेती हैं।

हाल ही में आई विश्व बैंक की रिपोर्ट हमारी तंत्र की विफलता और सड़कों की बदहाली को उजागर करती है। निस्संदेह दुनिया में मरने वालों लोगों का आठवां बड़ा कारण सड़क दुर्घटना ही है।

विडंबना देखिये कि दुनिया के कुल वाहनों का एक प्रतिशत भारत में है जबकि दुनिया में सड़क दुर्घटनाओं में ग्यारह फीसदी मौतें अकेले भारत में होती हैं। रिपोर्ट के अनुसार देश में हर साल साढ़े चार लाख सड़क दुर्घटनाएं होती हैं। इन दुर्घटनाओं में करीब डेढ़ लाख से अधिक लोगों की मौत होती है।

देश में प्रति घंटा त्रेपन सड़क हादसे होते हैं तथा प्रत्येक चार मिनट में एक व्यक्ति की मौत होती है। रिपोर्ट आंखें खोलती है कि पिछले एक दशक में भारत में पचास लाख लोग गंभीर रूप से घायल हुए और तेरह लाख लोगों की मौत हुई।

यह आंकड़ा बेहद डरावना है और सड़क सुरक्षा से जुड़ी नीतियों पर नये सिरे से विचार करने को बाध्य करता है। विडंबना यह भी कि विकासशील देशों में विकसित देशों के मुकाबले दुर्घटनाओं का आंकड़ा तीन गुना अधिक है।

विडंबना यह है कि हादसों में सिर्फ जीवन का नुकसान ही नहीं होता, बल्कि देश को इसकी बड़ी आर्थिक कीमत भी चुकानी पड़ती है। दरअसल, इन दुर्घटनाओं में मरने वाले लोगों का 76 फीसदी 18 से 45 आयु वर्ग का है, जो देश का कामकाजी वर्ग है। एक मौत से पूरे परिवार की आर्थिकी चरमरा जाती है।

विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार इन दुर्घटनाओं में सकल घरेलू उत्पाद में करीब छह लाख करोड़ का नुकसान होता है जो कि आर्थिक रूप से बड़ी क्षति है। निस्संदेह देश को इन हादसों में भारी आर्थिक व सामाजिक क्षति होती है।

इसके बावजूद इन दुर्घटनाओं को रोकने के लिये कोई गंभीर पहल होती नजर नहीं आती। देश के सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय को इस दिशा में व्यापक अध्ययन करके दुर्लभ मानवीय जीवन बचाने की निर्णायक पहल करनी चाहिए।

साथ ही देश की जर्जर सड़कों को सुधारने और  उनके दोषपूर्ण डिजाइनों को ठीक करने की जरूरत है ताकि इन हादसों को कम से कम किया जा सके।

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