प्रेम-समर्पण में पवित्रता

स्वामी दयानंद सरस्वती वैदिक धर्म के समर्थक होते हुए भी छुआछूत और ऊंच-नीच को नहीं मानते थे। एक बार एक दलित साधक उनके लिए अपने घर से प्रेमपूर्वक खिचड़ी बनाकर लाया।

स्वामी जी स्वभावानुसार कोई भेदभाव न मानते हुए उसकी खिचड़ी स्वीकार करके स्वाद लेकर खाने लगे। फिर तृप्ति की डकार लेकर बड़े संतुष्ट हुए। इस पर वहां बैठे कुछ लोगों ने एतराज करते हुए नाराज़गी प्रकट की और तीखे स्वर में बोले, ‘महाराज, आप अपवित्र हो गये हैं।

आपको ऐसा नहीं करना चाहिए था।’ स्वामी जी ने मुस्कुराकर जवाब दिया, ‘मेरे भाई, भोजन दो प्रकार से दूषित होता है। प्रथमतः, यदि वह किसी को दुःख या कष्ट देकर प्राप्त किया गया हो।

दूसरे तब, जब उसमें कोई मलिन वस्तु गिर गई हो। मगर, यह भोजन तो इनके परिश्रम का है, इसलिए पवित्र है। साथ ही इसमें कोई मलिन वस्तु नहीं, अपितु इनका प्रेम एवं समर्पण ही गिरा है, अतः इस भोजन को करने में कोई दोष नहीं है।

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