मिजार्पुरी कजली है उदास

बिन्ध्य की वादियों में सावन मास में अजब सन्नाटा है और मिजार्पुरी कजली उदास है। कजली के कंठ नहीं फूटे हैं। कोरोना महामारी ने कजली के स्वर छीन लिए हैं। कोरोना महामारी के संकट से जहां लोगों की सुख.समृद्धि प्रभावित हो रही है तो दूसरी तरफ़ लोक.संस्कृति भी इससे अछूती नहीं है। विश्व प्रसिद्ध मिजार्पुरी कजली के उत्सव पर विराम लगा है।
इन दोनों पूरे क्षेत्र में कजली के स्वर गुंजायमान रहते थे। पर अब अजब का सन्नाटा है। न तो झूले पड़े हैए न ही गांव के मेले ही लग रहे हैं। न ही चौपाल पर महिलाओं का जमावड़ा होता है। चारों ओर शांति पसरी है।
वैसे तो पूरे बिन्ध्य क्षेत्र में आषाढ़ माह से ही कजली के स्वर मुखरित होने लगते हैं। पर सावनी फुहार के बीच गांव के चौपल पर महिलाओं द्वारा कजली गाने से एक अलग आनंद दायक वातावरण बन जाता था। पूरे माह महिलाएं कजली खेलती थीं। कजली खेलने के लिए युवतियों को विशेष रूप से मायके बुलाने की परम्परा अति प्राचीन है।
इस बार युवतियों को कोरोना के चलते मन मसोस कर रहना पड़ा है। प्रसिद्ध चोर सिपाही का खेल भी नहीं हो पाया। महिलायें खुद अपने पति को सावन के मौसम में कजली उत्सव में भाग लेने के लिए आमंत्रित करती है।
एक बार अउ.त पिया अपने ससुराल मेंए सावन के बहार में ना। अपने माधुर्य के लिए कजली का अलग ही महत्व है। महिलाओं के साथ यहाँ पुरुषों द्वारा गायन की परम्परा भी प्राचीन है।
कज्जाल अपने अपने अखाड़ा के गीतों को कजली के दंगल में प्रतियोगी रुप में प्रस्तुत करते हैं। विजेता कज्जाल न केवल अपना बल्कि अपने गुरु की प्रतिष्ठा को बढ़ाता है। आषाढ़ गुरु पूर्णिमा के साथ अखाड़े तैयार होने लगते हैं। इस बार कज्जाल न रियाज कर रहे हैं न तो अखाड़ों की रौनक है।
असल में कजली की उत्पत्ति बिन्ध्य क्षेत्र की अधिष्ठात्री देवी मां बिन्ध्यवासिनी से माना जाती है। मां बिन्ध्यवासिनी देवी का एक नाम कज्जला भी है।
यहां मान्यता है कि देवी के आराधना से शुरु हुआ लोकगीत कालान्तर में कजली बनी। मिजार्पुर के कजली का उत्सव पूरे देश में प्रसिद्ध है। वषार् और कजली का सम्बन्ध ठीक वैसे ही है जैसा धरती और बादल का। प्रसिद्ध विद्वान और कजली के जानकार पं बृजदेव पाण्डेय कहते हैं कि वषार् के साथ कजली बनती है। बगैर बषार् के कजली की कल्पना नहीं की जा सकती है। कैसे खेले जाबू सावन में कजरियाए बदरिया घेरे आई ननदी।
उन्होंने बताया कि परम्परागत कजली जो महिलाएं आमतौर पर गाती हैं। जिसे ढुनमुनिया कजली भी कहा जाता है। यह महिलाओं द्वारा पीढ़ी दर पीढ़ी स्थानान्तरित है। संयोग और वियोग से पूर्ण श्रृंगार की रही है। मिजार्पुरी कजली अपनी विशेष राग के लिए जानी जाती है। जो आम कजली से अलग और विशिष्ट होती है। उन्होंने कहा कि बाद में कजली के स्वरूप में काफी परिवर्तन आया है।
अब सैकड़ों तरीके से कजली गायी जा रही है। टेलीविजन के इस युग में लोक संगीत भी अछूती नहीं रही है। बाजारवाद ने भी अपना प्रभाव दिखाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ा है। वैसे भी आधुनिक कजली में हेरफेर की गुंजाइश बराबर बनी रहती है।
बहरहाल कोरोना काल में बिन्ध्य क्षेत्र की लोक परम्परा पूरी तरह प्रभावित हुई है। वषार् काल में सावनी फुहार तो है। चारों ओर हरियाली की चादर बिछी है। पर न तो झूले पड़े हैंए न तो चौपल पर महिलाओं का झुंड ही है। एक युवती की बेदना . . इ कोरोनवा से जिन्दगी उदास बाए राम जी का आस बा ना।