पुरानी पिच पर दौड़ पड़ी कांग्रेस, नए मैदान में लड़खड़ा गई, सिर्फ इतने प्रतिशत स्ट्राइक रेट

महागठबंधन के नेतृत्वकर्ता राजद के एकतरफा निर्णय के कारण कांग्रेस इस बार अपनी कई परपंरागत सीटों को छोड़ते हुए नए मैदान में संघर्ष के लिए विवश थी। प्रचार के दौरान समन्वय की भी कमी रही। उसकी भरसक उपेक्षा हुई। इसके बावजूद अपने प्रदर्शन में सुधार करते हुए वह तीन सीटों पर सफल रही है।

यह 33 प्रतिशत से अधिक की स्ट्राइक रेट है। पूर्णिया में निर्दलीय राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव के विजय को भी कांग्रेस की सफलता मानें तो उसकी सीटें चार हो जाती हैं। ये चारों कांग्रेस की परंपरागत सीटें हैं और पिछले दो-तीन चुनावों से इनमें से तीन (किशनगंज, कटिहार, सासाराम) उसकी झोली में आती-जाती रही हैं।

पूर्णिया में पिछले दो चुनावों से वह निकटतम प्रतिद्वंद्वी रही है। हर बार की तरह इस बार भी कांग्रेस की सफलता अपने जनाधार के दम पर ही है। ऐसा पार्टी के दिग्गजों का दावा है, जो सामने मुखर होने से परहेज कर जाते हैं। सवर्ण, अनुसूचित जाति और मुस्लिम वर्ग में कांग्रेस का जनाधार रहा है। इस बार उसके खाते में आया सासाराम संसदीय क्षेत्र अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित है।

किशनगंज और कटिहार में उसके दो मुस्लिम प्रत्याशी विजयी रहे हैं। उनमें से एक पूर्व केंद्रीय मंत्री तारिक अनवर हैं और दूसरे मो. जावेद। सासाराम में सफल रहे मनोज कुमार पिछली बार बसपा के टिकट पर मात खा गए थे। कांग्रेस में आते ही प्रत्याशी बन सफल रहने वाले वे नए उदाहरण हैं।

पिछली बार किशनगंज को जीत महागठबंधन की लाज एकमात्र कांग्रेस ने ही रखी थी। 2014 में वह जिन दो क्षेत्रों में सफल रही, उनमें सुपौल के साथ किशनगंज संसदीय क्षेत्र भी था। सुपौल में पप्पू यादव की पत्नी रंजीत रंजन विजयी रही थीं, जो अभी राज्यसभा की सदस्य हैं। 2009 में बिहार में कांग्रेस के मात्र दो प्रत्याशी सफल रहे थे।

सासाराम में मीरा कुमार और किशनगंज में मो. असरारूल हक। उससे पहले 2004 में मधुबनी, औरंगाबाद और सासाराम में सफलता मिली थी। 2004 से पहले की चुनावी उपलब्धि में आज के झारखंड का भी उल्लेख करना होता है, क्योंकि तब बिहार और झारखंड संयुक्त थे।

इस बार महागठबंधन में कांग्रेस को मात्र नौ सीटें मिली थीं। उनकी भी घोषणा 29 मार्च को हुई, तब तक पहले चरण के तहत चार संसदीय क्षेत्रों में नामांकन की तिथि निकल चुकी थी। वस्तुत: वह राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद की चालाकी थी, क्योंकि कांग्रेस की परंपरागत औरंगाबाद सीट पहले चरण की चुनावी प्रक्रिया के दायरे में थी और लालू उस मैदान से कांग्रेस को बेदखल करने की ठान रखे थे।

पूर्णिया के संदर्भ में लालू के एकतरफा निर्णय को कांग्रेस ने इस विवशता में स्वीकार किया, क्योंकि राजद की मंशा कटिहार को लेकर भी ठीक नहीं थी। राजद के राज्यसभा सदस्य रहे अशफाक करीम ऐसा बता चुके हैं। अंतत: सीटें तय हुईं तो प्रत्याशियों के नाम पर सर्व-सम्मति को लेकर पेच फंसता रहा। वह पेच सामाजिक समीकरण को लेकर ही था।

सामाजिक समीकरण के कारण उसने कई संसदीय क्षेत्रों में पुराने दावेदारों को दरकिनार करते हुए नई उम्मीदों पर दांव लगाया। उनमें समस्तीपुर में सन्नी हजारी तो नवागत ही थे और महाराजगंज में आकाश प्रसाद सिंह की उम्मीदवारी का एकमात्र आधार पिता डा. अखिलेश प्रसाद सिंह रहे।

भागलपुर में विधायक अजीत शर्मा अनुभवी प्रत्याशी थे, लेकिन मतदाताओं को साध नहीं पाए। मुजफ्फरपुर में अजय निषाद को भाजपा ने एंटी-इनकंबेंसी के कारण ही बेटिकट किया था। वह कांग्रेस की संभावना वाली सीट भी नहीं थी।

पटना साहिब में अंशुल अविजीत का नाम आखिरी क्षण में तय हुआ, तब तक भाजपा का प्रचार अभियान काफी आगे बढ़ चुका था। पश्चिम चंपारण में पूर्व विधायक मदन मोहन तिवारी अनुभवी प्रत्याशी तो थे, लेकिन सीमित दायरे के कारण संभावना कम थी। कांग्रेस के लिए उससे बेहतर बगल की वाल्मीकिनगर सीट थी, जहां वह उप चुनाव में लगभग 20 हजार मतों से पिछड़ गई थी।

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