असम की रैली में फिलिस्तीन के समर्थन में लगे नारे, पढ़ें पूरी खबर…
गाजा में चल रहे युद्ध को लेकर फिलिस्तीनियों के समर्थन में दुनिया के कई देशों में प्रदर्शन चल रहे हैं। इसी बीच असम में भी एक जुलूस के दौरान ‘फ्री फिलिस्तीन’ के नारे लगाए गए। रिपोर्ट के मुताबिक असम की बराक वैली में 1961 के भाषा आंदोलन की याद में रैली निकाली गई थी। इस रैली में ‘गाजा में नरसंहार रोको’ जैसे नारे लगाए गए। बहुत सारे लोग रैली में फिलिस्तीन के समर्थन वाले पोस्टर लेकर पहुंचे थे। बता दें कि बराक वैली के तीन जिलों में 19 मई को भाषा शहीद दिवस के रूप में मनाया जाता है। 1961 में आंदोलन के दौरान 11 युवाओं की मौत हो गई थी।
बीते वर्षों की ही तरह 19 मई से पहले शुरू हुई रैली में कई संगठनों ने भाग लिया था। शुक्रवार को सम्मिलित सांस्कृतिकि मंच ने रैली का आयोजन किया था। इसमें करीब 32 संगठन शामिल थे। इसी रैली में बहुत सारे लोगों के हाथ में फिलिस्तीनियों के समर्थन वाले पोस्टर दिखे। सम्मिलित सांस्कृतिक मंच के अध्यक्ष बिस्वजीत दास ने कहा, 1961 का भाषा आंदोलन सरकार के विरोध का आंदोलन था। आज जो कुछ गाजा में हो रहा है, तब वैसा ही अत्याचार यहां किया गया था।
उन्होंने कहा, हम रवींद्रनाथ टैगोर क मानते हैं। हमारा मानना है कि सभी लोग वैश्विक नागरिक हैं और लोगों को वैश्विक मुद्दे पर भी आवाज बुलंद करनी चाहिए। फिलिस्तीनियों और यूक्रेनियों के प्रति हमारी संवेदनाएं हैं। उन्होंने कहा फिलिस्तीन के समर्थन में नारेबाजी कोरस नाम के के संगठन ने की थी और इसमें बाकी के लोग शामिल नहीं थे। उन्होंने कहा, भाषा आँदोलन की यादगार हमारे लिए वैश्विक तौर पर हो रहे अन्याय के खिलाफ भी आवाज उठाने का एक मौका होता है। गाजा में मासूम बच्चों की जान जा रही है। हो सकता है कि रैली में शामिल कई अन्य संगठन इस बात से सहमत ना हों। हम किसी पर समर्थन के लिए दबाव नहीं डाल सकते हैं।
इस मामले को लेकर विवाद खड़ा हो गया है। कई लोगों ने सोशल मीडिया पर फिलिस्तीन के समर्थन पर ऐतराज जताया। लोगों का कहना है कि भाषा आंदोलन की यादगार का राजनीतीकरण नहीं होना चाहिए। सीनियर जर्नलिस्ट सायान बिस्वास ने कहा कि उनका संगठन भी रैली में शामिल हुआ था लेकिन फिलिस्तीन के समर्थन में नहीं उतरा था। सिलचर के जॉयदीप दत्ता नाम के ऐक्टिविस्ट ने कहा कि ऐसा लगता है कि यह भाषा आंदोलन को याद करने के लिए रैली नहीं निकाली गई थी बल्कि सरकार की आलोचना करने के लिए इसका आयोजन किया गया था।
सीनियर ऐडवोकेट शिशिर डे ने कहा, कोई भी आंदोलन राजनीति से हटकर नहीं होता है। 1961 का आंदोलन भी सरकार के फैसले के खिलाफ था। हम उन 11 युवाओं को वापस नहीं ला सकते जिनकी जान चली गी। कम से कम हम सरकार की आलोचना करके उनको श्रद्धांजलि दे सकते हैं। जानकारों के मुताबिक इस आंदोलन के दौरान 14 साल की बच्ची समेत 11 युवाओं की मौत सिलचर रेलवे स्टेशन पर पुलिस की फायरिंग में हो गई थी। वे असम लैंग्वेज ऐक्ट 1960 के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे थे। इस कानून के तहत असमिया को राज्य की भाषा करार दिया गया था।
युवाओँ की मौते के बाद सरकार को झुकना पड़ा था और बराक वैली के तीन जिलों में बंगाली को आधिकारिक भाषा घोषित कर दिया गया। इसीतरह बोडोलैंड की भाषा बोडो को बनाया गया। अब लोगों की मांग है कि भाषा शहीद दिवस को आधिकारिक रूप से मान्यता दी जाए। इस मामले की जांच मेहरोत्रा कमीशन ने की थी लेकिन रिपोर्ट को कभी सार्वजनिक नहीं किया गया। संगठनों की मांग है कि रिपोर्ट भी सार्वजनिक की जाए।