मैनपुरी और रामपुर उपचुनाव बना प्रतिष्ठा की लड़ाई, जानिए क्या है इन सीटों का इतिहास?
लखनऊ : उत्तर प्रदेश में मैनपुरी, रामपुर और खतौली में उपचुनाव (Bypolls) के लिए आज वोट डाले जा रहे हैं. मैनपुरी के वोटर्स अपना सांसद चुनने वाले हैं जबकि रामपुर और खतौली के वोटर्स अपने-अपने विधायक चुनेंगे. स्थानीय वोटर्स या हमारे-आपके के लिए ये बाकी दूसरे चुनावों की तरह ही एक चुनाव भर हैं, लेकिन सूबे की राजनीतिक पार्टियों खासतौर पर बीजेपी और समाजवादी पार्टी गठबंधन के लिए ये तीनों सीटें प्रतिष्ठा की ऐसी लड़ाई बन गई है जिन पर सिर्फ उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) की ही नहीं बल्कि पूरे देशभर की निगाहें टिकी हैं. पॉलिटिकल पंडित तीनों सीटों को नाक की लड़ाई बता रहे हैं.
विधानसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी को शिकस्त देने के बाद बीजेपी के सामने उसके दुर्ग मैनपुरी और आजम खान के गढ़ रामपुर को जीतने का अच्छा मौका है. इसी साल जून में एसपी अध्यक्ष अखिलेश यादव और एसपी सांसद आजम खान के इस्तीफे के बाद आजमगढ़ और रामपुर लोकसभा सीट के लिए उपचुनाव हुए. बीजेपी ने दोनों सीटों पर जबदस्त जीत दर्ज की थी. उपचुनाव वाली इन सीटों की अहमियत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि खुद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने तीनों सीटों पर प्रचार का मोर्चा संभाला था. जबकि आजमगढ़ और रामपुर लोकसभा उपचुनाव में प्रचार से दूरी बनाए रखने वाले अखिलेश यादव ने इस बार रामपुर में आसिम रजा के लिए वोट की अपील की और मैनपुरी में तो पत्नी डिंपल यादव के प्रचार के लिए उन्होंने डेरा ही डाल रखा है.
मैनपुरी में BJP को जीत की तलाश
इन तीनों सीटों पर उपचुनाव की जितनी दिलचस्प लड़ाई है, उससे भी दिलचस्प है तीनों सीटों का इतिहास. मैनपुरी लोकसभा सीट समाजवादी सियासत खासकर मुलायम परिवार का गढ़ मानी जाती है. बीजेपी आज तक यहां से जीत दर्ज नहीं कर पाई है. 2014 में भी जब पूरे देश में मोदी लहर सुनामी की तरह चल रही थी तब भी मैनपुरी ने अपने ऊपर भगवा रंग नहीं चढ़ने दिया. 2014 और 2019 में समाजवादी पार्टी से मुलायम सिंह यादव ने चुनाव लड़ा और जीत दर्ज की. हालांकि, 2019 में बीएसपी से गठबंधन के बावजूद उनकी जीत का अंतर कम हुआ. 2014 में मुलायम सिंह यादव ने 3.5 लाख से ज्यादा वोट से जीत दर्ज की थी लेकिन 2019 के चुनाव में जीत का ये अंतर घटकर एक लाख से भी कम हो गया.
ये भी एक वजह है जिससे बीजेपी को यहां जीत की उम्मीद दिख रही है. यादव परिवार की पारंपरिक सीट बनने से पहले मैनपुरी लोकसभा सीट हमेशा उथल-पुथल करने वाली सीट रही है. आजादी के बाद 1952 में जब पहली बार चुनाव हुए तो कांग्रेस ने यहां जीत दर्ज की लेकिन दूसरे ही लोकसभा चुनाव में मैनपुरी के वोटर्स ने कांग्रेस की बजाय प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के बंशीधर डागर पर अपना भरोसा जताया. हालांकि, उसके बाद 1971 तक लगातार कांग्रेस ने इस सीट पर अपनी जीत बनाए रखी. इमरजेंसी के बाद 1977 में जब चुनाव हुए तब सत्ता विरोधी लहर में कांग्रेस को मैनपुरी सीट से हाथ धोना पड़ा. लेकिन जनता पार्टी ये जीत ज्यादा समय तक बरकरार नहीं रख पाई.
मुलायम सिंह ने 1996 में मैनपुरी से पहली बार लोकसभा का चुनाव लड़ा
अगले ही साल यानी 1978 में यहां उपचुनाव हुए और कांग्रेस ने वापसी की. 2 साल बाद ही 1980 के चुनावों में मैनपुरी ने एक बार फिर कांग्रेस को नकार दिया. 1977 में भारतीय लोक दल के टिकट से जीत दर्ज करने वाले रघुनाथ सिंह वर्मा ने 1980 में जनता पार्टी सेक्युलर के टिकट पर चुनाव लड़ा और जीते. 4 साल बाद 1984 में कांग्रेस ने एक बार फिर मैनपुरी में जीत दर्ज की लेकिन ये आखिरी मौका था जब मैनपुरी के वोटर्स ने कांग्रेस पर भरोसा जताया. उसके बाद आज तक कांग्रेस इस सीट पर जीत नहीं पाई है. 1992 में समाजवादी पार्टी बनाने वाले मुलायम सिंह यादव ने 1996 में मैनपुरी से पहली बार लोकसभा का चुनाव लड़ा और रिकॉर्ड अंतर से जीत भी दर्ज की. 1996 के बाद मैनपुरी लोकसभा सीट के लिए 8 बार चुनाव हो चुके हैं, लेकिन हर बार जीत समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार की ही हुई है.
मैनपुरी का जातीय अंकगणित
मैनपुरी सीट से मुलायम परिवार के जीत के पीछे एक बड़ी वजह यहां का जातीय समीकरण भी है. 17 लाख से ज्यादा वोटर्स वाली इस सीट पर सबसे ज्यादा करीब 35 फीसदी यादव वोटर्स हैं. इसके बाद बारी आती है शाक्य और राजपूत वोटर्स की. ये भी करीब 30-35 फीसदी बैठते हैं. यादव और शाक्य पारंपरिक तौर पर समाजवादी पार्टी के वोट बैंक माने जाते हैं. इसके बाद ब्राह्मण, लोधी, दलित और मुस्लिम वोटर्स हैं. आंकड़े बताते हैं कि मैनपुरी सीट पर मुलायम सिंह यादव को 60-62 फीसदी वोट मिलते रहे हैं. ऐसा नहीं है कि बीजेपी ने मैनपुरी की महाभारत को जीतने की कभी कोशिश नहीं की है. मैनपुरी में मुलायम के वर्चस्व को तोड़ने के लिए बीजेपी ने हर बार जातीय समीकरणों के साथ उम्मीदवार उतारे लेकिन कोई कामयाबी नहीं मिली. मुलायम परिवार का दबदबा सीट पर बढ़ता ही गया.
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रामपुर: आजम का गढ़!
मैनपुरी लोकसभा सीट की तरह ही रामपुर विधानसभा सीट पर भी सबकी निगाहें टिकी हैं. रामपुर विधानसभा ऐसी सीट है जहां बीजेपी आज तक जीत दर्ज नहीं कर पाई है. एक्सपर्ट मानते हैं कि बीजेपी रामपुर लोकसभा उपचुनाव की तरह विधानसभा उपचुनाव के नतीजों से भी सबको चौंका सकती है. रामपुर सदर विधानसभा सीट को समाजवादी पार्टी के नेता आजम खान और उनके परिवार की पारंपरिक सीट मानी जाती है. खुद आजम खान इस सीट से 10 बार विधानसभा जा चुके हैं. 1996 के बाद समाजवादी पार्टी कभी इस सीट से हारी नहीं है. 2017 में जब मोदी लहर में यूपी विधानसभा चुनाव हुए, बीजेपी ने 300 से ज्यादा सीटों पर जीत दर्ज की लेकिन उस लहर में भी आजम खान ने एसपी की साइकिल को बिना लड़खड़ाए रामपुर से लखनऊ पहुंचा दिया था. हालांकि, 45 साल बाद इस बार पहला मौका है जब रामपुर में विधानसभा चुनाव हो रहा है लेकिन आजम खान या उनके परिवार का कोई सदस्य उम्मीदवार नहीं है. आजम खान ने खुद 1977 में इसी सीट से चुनावी राजनीति में कदम रखा था. हालांकि, पहली चुनावी परीक्षा में उन्हें हार का सामना करना पड़ा था लेकिन 3 साल बाद ही 1980 में जनता पार्टी सेक्युलर के उम्मीदवार के तौर पर उन्होंने जीत दर्ज की. इसके बाद 1985 में लोकदल, 1989 में जनता दल और 1991 में जनता पार्टी के टिकट पर रामपुर से चुनाव लड़कर आजम खान जीते. 1992 में मुलायम सिंह यादव ने जब समाजवादी पार्टी का गठन किया तब आजम खान भी साथ आ गए.
आजम खान इस सीट पर अजेय साबित होते रहे हैं
1993 में आजम खान एक बार फिर रामपुर की चुनावी लड़ाई में कूदे और जीत दर्ज की. हालांकि, 1996 में कांग्रेस के उम्मीदवार ने आजम खान को हरा दिया लेकिन 2002 में एक बार आजम खान ने जीत के साथ वापसी की और तब से लेकर अब तक आजम खान इस सीट पर अजेय साबित होते रहे हैं. ऐसे में रामपुर सदर की सीट पर ना सिर्फ आजम खान की साख दांव पर लगी है बल्कि खुद समाजवादी पार्टी ने भी इसे प्रतिष्ठा का सवाल बनाया हुआ है. रामपुर लोकसभा उपचुनाव में प्रचार से दूरी बनाए रखने वाले अखिलेश यादव ने एसपी उम्मीदवार आसिम रजा के पक्ष में चुनाव प्रचार किया. दूसरी तरफ, बीजेपी ने आजम का गढ़ तोड़ने के लिए आकाश सक्सेना को मैदान में उतारा है. साथ ही मुस्लिम वोटर्स को साधने के लिए बीजेपी ने पसमांदा प्लान पर भी काम किया है ताकि रामपुर सीट पर जीत का सूखा खत्म किया जा सके.