ज्ञानवापी केस: ऐसा क्या हुआ कि हिंदू पक्ष की दलील मान कोर्ट ने दिया फैसला?

ज्ञानवापी केस: वाराणसी जिला अदालत ने अपने 26 पेज के फैसले में मान लिया है कि शृंगार गौरी की पूजा का याचिकाकर्ता महिलाओं का दावा ‘उपासना स्थल कानून 1991’ के दायरे से बाहर है. तभी तो इस कानून से जुड़े आईसीसी यानी इंडियन सिविल कोड के नियम 7 (11) के दायरे में ये नहीं आता. हिंदू महिलाओं की याचिका पर उनकी ओर से हरिशंकर जैन ने दलील रखी कि ये मामला हालांकि कानून में वर्णित अयोध्या मामले की छूट वाले दायरे में नहीं है, लेकिन अपनी प्रकृति और प्रमाणिक सत्यता की वजह से ये इस कानून के दायरे से बाहर है.

हिंदू पक्ष ने तर्क दिया कि क्योंकि यहां 15 अगस्त 1947 की बात तो छोड़ ही दी जाय, 1993 तक शृंगार गौरी की पूजा होती रही है. शृंगार गौरी काशी विश्वनाथ के चारों ओर मौजूद शक्ति की प्रतीक नौ गौरियों में से एक हैं. इनका स्थान वहीं है जहां ज्ञानवापी मस्जिद की दीवार का एक कोना है. अदालत के सवाल पर याचिकाकर्ताओं ने ये भी प्रमाण प्रस्तुत कर दिया कि 2021 तक साल में एक दिन चैत्र नवरात्र की चतुर्थी को माता शृंगार गौरी की पूजा का अधिकार हिंदुओं को है.

इसके अलावा यह दलील भी दी गई कि पिछली सदी के अंतिम दशक तक व्यास परिवार का ज्ञानवापी के तहखाने में स्थित देव प्रतिमाओं की पूजा के लिए आना-जाना था. कोर्ट ने अपने फैसले में इन दावों का जिक्र करते हुए उनकी सत्यता पर भरोसा भी किया है. अब इस फैसले से ये तो तय हो गया कि सदियों पुराने इस विवाद पर सुनवाई जारी रहेगी. यानी अब मेरिट पर मुकदमा सुना जाएगा.

आपको बता दें कि वाराणसी के जिला जज ए. के. विश्वेश की अदालत ने ज्ञानवापी शृंगार गौरी मामले की पोषणीयता (मामला सुनवाई करने योग्य है या नहीं) को चुनौती देने वाले मुस्लिम पक्ष की याचिका को खारिज कर दिया है. कोर्ट ने कहा है कि यह मामला उपासना स्थल अधिनियम और वक्फ अधिनियम के लिहाज से वर्जित नहीं है, लिहाजा वह इस मामले की सुनवाई जारी रखेगी. मामले की अगली सुनवाई 22 सितंबर को होगी.

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पर्सनल लॉ बोर्ड ने फैसले को बताया निराशाजनक

वहीं, ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने ज्ञानवापी श्रृंगार गौरी मामले से जुड़े अदालत के फैसले को निराशाजनक करार देते हुए कहा है कि केंद्र सरकार 1991 के उपासना स्थल कानून का क्रियान्वयन सुनिश्चित करे. मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के महासचिव मौलाना ख़ालिद सैफ़ुल्लाह रहमानी ने एक बयान में कहा, ‘ ज्ञानवापी के संबंध में जिला अदालत का प्रारंभिक निर्णय निराशाजनक और दुःखदायी है.”

उनके अनुसार, ‘1991 में बाबरी मस्जिद विवाद के बीच संसद ने मंजूरी दी थी कि बाबरी मस्जिद को छोड़कर सभी धार्मिक स्थल 1947 में जिस स्थिति में थे, उन्हें यथास्थिति में रखा जाएगा और इसके ख़िलाफ़ कोई विवाद मान्य नहीं होगा. फिर बाबरी मस्जिद मामले के फ़ैसले में उच्चतम न्यायालय ने 1991 के कानून की पुष्टि की.”

रहमानी ने कहा, ‘इसके बावजूद जो लोग देश में घृणा परोसना चाहते हैं और जिन्हें इस देश की एकता की परवाह नहीं है, उन्होंने ज्ञानवापी मस्जिद का मुद्दा उठाया और अफ़सोस की बात है कि स्थानीय अदालत ने 1991 के क़ानून की अनदेखी करते हुए याचिका को स्वीकृत कर लिया और एक हिन्दू समूह के दावे को स्वीकार किया.’ उन्होंने दावा किया, ‘यह देश के लिए एक दर्दनाक बात है. इससे देश की एकता प्रभावित होगी, सामुदायिक सद्भाव को क्षति पहुंचेगी, तनाव पैदा होगा.’

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