नवरात्र का पांचवां दिन मां छिन्नमस्ता को समर्पित, जानिए कैसे हुई देवी की उत्पत्ति

गुप्त नवरात्र के पांचवें दिन मां छिन्नमस्ता की पूजा की जाती है। 10 महाविद्याओं में मां छिन्नमस्ता का 5वां स्थान है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, मां छिन्नमस्ता व्यक्ति की सभी चिंताओं को दूर कर उसकी मनोकामनाएं पूर्ण करती हैं। इनकी पूजा करने से व्यक्ति को अकाल मृत्यु का डर नहीं सताता है।

देवी छिन्नमस्ता की उत्पत्ति

पौराणिक कथाओं के अनुसार, एक बार मां भगवती अपनी सखियों के साथ मंदाकिनी नदी में स्नान-ध्यान कर रही थीं। उसी समय माता की सहेलियां को बहुत भूख लगने लगी। भूख की पीड़ा के कारण दोनों साथियों के चेहरे पीले पड़ गए। चूंकि, उन दोनों को खाने के लिए कुछ नहीं मिला, इसलिए उन्होंने माता से भोजन उपलब्ध कराने के लिए कहा। अपनी सखियों की विनती सुनकर माता ने कहा- हे सखियों! कृपया थोड़ा धैर्य रखें। स्नान के बाद ही खाना बनेगा।

हालांकि, दोनों सखियों ने भोजन की तत्काल व्यवस्था करने का अनुरोध किया। मां भगवती ने तुरंत अपनी तलवार निकाली और अपना सिर काट लिया। तुरंत ही मां भगवती का कटा हुआ सिर उनके बाएं हाथ में आ गिरा। इससे रक्त की तीन धाराएं निकल पड़ीं। सखियों ने दो धाराओं से भोजन करना शुरू कर दिया। माता स्वयं तीसरी धारा से रक्त पान करने लगीं। उसी समय मां छिन्नमस्तिका का प्रादुर्भाव हुआ।

मां छिन्नमस्ता का महत्व

  • देवी छिन्नमस्ता को भगवती त्रिपुर सुंदरी का उग्र रूप माना जाता है।
  • तंत्र-मंत्र सीखने वाले साधकों के लिए गुप्त नवरात्र का विशेष महत्व होता है।
  • मां को चिंतपूर्णी भी कहा जाता है। इसका अर्थ यह है कि मां चिंताएं दूर कर देती हैं।
  • जो भक्त सच्ची आस्था और भक्ति के साथ मां के दरबार में आते हैं, उनकी मनोकामनाएं अवश्य पूरी होती हैं।
  • शिव पुराण में उल्लेखित है कि देवी छिन्नमस्ता ने राक्षसों का वध करके देवताओं को उनसे मुक्त कराया था।
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