कमजोर वर्ग के बच्चों को होगा नुकसान
हाई स्कूल के अंतिम वर्ष (कक्षा 12) के विद्यार्थियों के लिए पिछले दिनों एक उल्लेखनीय बदलाव किया गया। नई शिक्षा नीति, 2020 के तहत देश के 53 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में अंतर-स्नातक में दाखिले के लिए सामान्य प्रवेश परीक्षा ‘सीयूईटी’ आयोजित करने का फैसला लिया गया, जिसके तहत दाखिले की प्रक्रिया अभी जारी है।
इस इम्तिहान का मकसद सभी बच्चों को उच्च शिक्षा में प्रवेश के लिए समान अवसर मुहैया कराना है। चूंकि अच्छे कॉलेज में दाखिले की राह इस परीक्षा में आने वाले अंक तय करेंगे, इसलिए इसमें यह मायने रखेगा कि मां-बाप अपने बच्चों को तैयार करने के लिए किस हद तक उनकी अच्छी पढ़ाई-लिखाई कराते हैं।
सवाल यह है कि भारत में स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता और निजी ट्यूशन के माध्यम से अतिरिक्त शैक्षणिक मदद की आवश्यकता के संदर्भ में हमारा अनुभव क्या कहता है? इसे राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के 75वें दौर के आंकड़ों से समझने की कोशिश करते हैं।
इसमें 2017-18 में छह से 18 वर्ष के 1,09,595 स्कूली छात्रों का सर्वे किया गया था। इसके मुताबिक, शहरों में सिर्फ 35 फीसदी बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे थे, जबकि ग्रामीण इलाकों में यह आंकड़ा 72 प्रतिशत था। निजी स्कूल में बच्चे को पढ़ाने वाले करीब 32 फीसदी माता-पिता ने सरकारी स्कूलों में शिक्षा की दुर्दशा को इसका सबसे बड़ा कारण बताया था, जबकि अन्य पांच फीसदी की नजर में यह दूसरी मुख्य वजह थी।
आज स्कूल फीस व अन्य संबंधित खर्चों के अलावा, माता-पिता ‘शैडो स्कूलिंग’ या निजी ट्यूशन के लिए भी पैसा चुकाते हैं, ताकि उनका बच्चा पिछड़ न जाए। जब हम ट्यूशन पर किए गए खर्च के बारे में पड़ताल करते हैं, तो पाते हैं कि 2017-18 में सरकारी स्कूलों में 15 से 18 आयु-वर्ग के करीब 31 फीसदी बच्चे कोचिंग संस्थानों में जाते थे, जबकि निजी स्कूलों के मामले में यह आंकड़ा 24.5 फीसदी था। यही वह उम्र होती है, जब उच्च शिक्षण संस्थानों में प्रवेश के लिए प्रतियोगी व बोर्ड परीक्षाओं की तैयारी अमूमन शुरू हो जाती है।
निजी कोचिंग कराना माता-पिता की सामाजिक-आर्थिक हैसियत से भी तय होता है। बढ़िया कमाने वाले माता-पिता न सिर्फ अपने बच्चों की शिक्षा पर अच्छा खर्च कर सकते हैं, बल्कि खुद अच्छे पढे़-लिखे होने के कारण स्कूल होमवर्क पूरा कराने में भी बच्चों की मदद कर सकते हैं। करते हैं। ट्यूशन में बच्चों के दाखिले और उनकी माओं की शिक्षा का अनुपात तो उल्टा ‘यू’ (अंग्रेजी वर्ण यू) आकार का दिखता है।
यानी, निजी स्कूलों में पढ़ने वाले 15 से 18 साल के बच्चों में, उन बच्चों के निजी कोचिंग संस्थान जाने का प्रतिशत सबसे कम (13 फीसदी) रहा, जिनकी मां उच्च माध्यमिक शिक्षा या उससे ऊपर की डिग्री ले चुकी हैं। इसका यह मतलब है कि शिक्षित माएं अपने बच्चों के स्कूली कामकाज में मदद करने में सक्षम होती हैं।
सरकारी स्कूलों में भी, जहां एक तरफ माओं की शिक्षा व बच्चों के निजी कोचिंग में दाखिले के बीच उल्टा ‘यू’ का रिश्ता दिखता है, वहीं दूसरी ओर पढ़ाने का सामर्थ्य भी एक बड़ा कारक बनकर उभरता है। जिन बच्चों की माताओं ने प्राथमिक स्कूल पूरा नहीं किया, निजी कोचिंग में उनके दाखिले की दर कम दिखी, जबकि 15-18 आयु-वर्ग के सरकारी स्कूल के बच्चों का ट्यूशन पढ़ने के बावजूद औसत वार्षिक खर्च 10,000 रुपये से कुछ ही अधिक था।
यह राशि निजी स्कूलों के बच्चे के औसत खर्च की एक तिहाई भी नहीं थी। इतना ही नहीं, निजी स्कूलों के बच्चों के माता-पिता सरकारी स्कूलों की तुलना में ट्यूशन पर करीब 40 फीसदी अधिक खर्च करते हैं।
यानी, गुणवत्तापूर्ण पढ़ाई व खर्च आदि को देखते हुए यह कह सकते हैं कि निजी स्कूलों के विद्यार्थी प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के मामले में सरकारी स्कूलों के छात्रों से बेहतर अवस्था में होते हैं।
ऐसे में, यह कैसे सुनिश्चित किया जा सकेगा कि इंजीनियरिंग या मेडिकल की तरह सीयूईटी परीक्षा की तैयारी कराने के नाम पर कोचिंग सेंटर मशरूम की तरह नहीं उगेंगे, जो न सिर्फ शिक्षा प्रणाली को कमजोर कर सकते हैं, बल्कि निम्न गुणवत्ता वाले स्कूलों में पढ़ने वाले और गरीब विद्यार्थियों को प्रभावित भी कर सकते हैं। जबकि, वे पहले से ही काफी नुकसान झेल रहे हैं।