अपनी मुक्ति का रास्ता स्वयं गढ़ो

बुद्ध ने निम्नतर प्राणियों के प्रति दया की शिक्षा दी; और तब से भारत में एक भी संप्रदाय ऐसा नहीं हुआ, जिसने समस्त प्राणियों, पशुओं तक के प्रति प्रेम की शिक्षा न दी हो। यह दया, यह करुणा, यह प्रेम ही वह है- किसी भी सिद्धांत की अपेक्षा अधिक महान- जिसे बौद्ध धर्म ने हमारे लिए छोड़ा है।

बुद्ध के जीवन में एक विशेष आकर्षण है… अन्य किसी की अपेक्षा मैं उस चरित्र के प्रति सबसे अधिक श्रद्धा रखता हूं- वह साहस, वह निर्भीकता, वह विराट् प्रेम! उनका जन्म मनुष्य के कल्याण के निमित्त हुआ था।

… सत्य की खोज उन्होंने इस कारण की कि लोग दुख से पीड़ित थे। उनकी सहायता कैसे की जाए, यही उनकी एकमात्र चिंता थी। अपने सारे जीवन भर उन्होंने स्वयं के लिए एक विचार तक नहीं किया। हम अज्ञानी, स्वार्थरत, संकीर्णमना मानव प्राणी इस पुरुष की महानता को कभी कैसे समझ सकते हैं?…

ईसा के जन्म से छह सौ वर्ष पूर्व, बुद्ध के जीवनकाल में, भारतवासियों को अद्भुत शिक्षा मिला करती होगी। वे निश्चय ही अत्यंत मुक्तमना रहे होंगे। विशाल जनराशि ने उनका अनुगमन किया।

राजाओं ने अपने सिंहासन त्यागे, रानियों ने अपने त्यागे। लोग उनकी शिक्षा, जो इतनी क्रांतिकारी थी और जो युगों से उनको पुरोहितों द्वारा मिलती रहने वाली शिक्षा से इतनी भिन्न थी, का आदर कर सके और उसे अंगीकार कर सके। लेकिन उनकी बुद्धि असाधारण रूप से मुक्त और विशाल रही है।

और उनकी मृत्यु पर विचार करो। यदि वह जीवन में महान् थे, तो मृत्यु में भी महान् थे। उन्होंने तुम्हारे अमरीकी आदिवासियों से मिलती-जुलती जाति के एक सदस्य द्वारा भिक्षा में दिए खाद्य पदार्थ को खा लिया।

(* कहा जाता है कि भगवान बुद्ध की मृत्यु विषाक्त भोजन से हुई थी) … उन्होंने अपने शिष्यों से कहा, ‘इस खाने को न खाना, किंतु उसे मैं अस्वीकार नहीं कर सकता। उस आदमी के पास जाओ और उससे कहो कि उसने मेरे जीवन की सबसे बड़ी सेवाओं में एक मेरे प्रति की है- उसने मुझे मेरे शरीर से मुक्त कर दिया है।

’ जब उन्होंने एक शिष्य को रोते देखा, तो उन्होंने उसकी भर्त्सना यह कह कर की, ‘यह क्या है? मेरी सारी शिक्षाओं का फल यही है? किसी मिथ्या बंधन को न रहने दो, न मुझ पर निर्भरता को, न इस जाते हुए व्यक्तित्व के मिथ्या महिमा-मंडन को।

… अपनी मुक्ति स्वयं ही निष्पन्न करो।’ मृत्यु के समय भी उन्होंने अपने लिए किसी विशिष्टता का दावा नहीं किया। उसके लिए मैं उनकी पूजा करता हूं।

मुक्ति की उस भूमिका में, जिसे वे निर्वाण कहते थे, प्रवेश करने के लिए उन्होंने हर व्यक्ति को आमंत्रित किया है। किसी न किसी दिन उसे सबको प्राप्त करना है; और वह उपलब्धि ही मनुष्य की चरम निष्पत्ति है।

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