साहसिक राजनय

साल 2008 के मुंबई हमलों के लिए एक प्रमुख जिम्मेदार साजिद मजीद मीर को लाहौर की अदालत द्वारा पंद्रह वर्षों से अधिक की सजा सुनाए जाने को क्या हम सिर्फ संयोग कह सकते हैं या इसे बदले परिवेश में पाकिस्तानी राज्य के चरित्र में आए एक गुणात्मक परिवर्तन के रूप में देखा जा सकता है?

यह प्रश्न इसलिए और महत्वपूर्ण हो जाता है कि मीर को कुछ ही दिनों पहले मृत घोषित किया जा चुका था और अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद के आर्थिक स्रोतों पर नजर रखने वाली संस्था ‘फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स’ यानी एफएटीएफ ने अपनी हालिया बैठक में पाकिस्तान को लगभग दोषमुक्त कर दिया है।

फिर ऐसी क्या जरूरत आ पड़ी कि अपनी एजेंसियों द्वारा पाले-पोसे व्यक्ति को मुंबई हमले जैसी एक बड़ी आतंकी घटना में सजा दिलाई जाए? इसे समझने के लिए पड़ोसी देश में हाल में जो कुछ घटा, उसे समझना होगा।पाकिस्तान के जन्म के बाद यह पहली बार है कि किसी सरकार को संविधान में वर्णित तरीके से अविश्वास प्रस्ताव लाकर हटाया गया है।

भारतीय पाठकों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि निवर्तमान प्रधानमंत्री इमरान खान को सबसे ज्यादा नाराजगी इस बात पर थी कि पाक सेना ने खुद को तटस्थ घोषित कर देश की अंदरूनी राजनीति में भाग लेने से इनकार कर दिया था।

किसी दूसरे लोकतंत्र में तो सेना से यह स्वाभाविक अपेक्षा हो सकती है, लेकिन पाकिस्तान में शायद राजनीतिज्ञों ने भी इसे सहज रूप से स्वीकार कर लिया है कि सेना तो सरकार बनाने-बिगाड़ने के खेल में रहेगी ही। यह भी किसी से छिपा नहीं था कि सेना ही इमरान खान को लाई थी।


इमरान ने अपने साढे़ तीन साल के शासन में देश को आर्थिक बर्बादी के कगार पर पहुंचाने के साथ ही उसे राजनयिक रूप से भी अलग-थलग कर दिया था। नए प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ को खराब अर्थव्यवस्था को सुधारने और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष (आईएमएफ) से बिगडे़ संबंध सुधारने के लिए इतने कठोर फैसले लेने पड़े।

पेट्रोल की कीमतों में पचास रुपये प्रति लीटर से अधिक की बढ़ोतरी हुई, डॉलर की कीमत दो सौ रुपये की मनोवैज्ञानिक सीमा-रेखा पार कर गई और इमरान ने चलते-चलते मध्य वर्ग को आयकर में जो रियायतें दी थीं, वे सभी वापस ले ली गई हैं। 


बहरहाल, नई सरकार के आते ही साजिद मजीद मीर की सजा को क्या भारत से संबंध सुधारने के प्रयास के रूप में लिया जा सकता है? निर्णायक रूप से कुछ भी कहना जल्दबाजी ही होगी और सत्ता गठबंधन के प्रमुख नेताओं से मिलने वाले संकेतों को नजरंदाज भी नहीं किया जा सकता।

इनमें सबसे महत्वपूर्ण है, सरकार में विदेश मंत्री और पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के नेता बिलावल भुट्टो जरदारी का बयान कि पाकिस्तान बहुत दिनों तक अलग-थलग नहीं रह सकता और उसमें छिपा यह संकेत कि उसे भारत के साथ अपने व्यापारिक संबंध मजबूत करने चाहिए।

सत्ता गठबंधन के दूसरे बड़े दल मुस्लिम लीग (नून) के नेता नवाज शरीफ तो पहले भी भारत से बेहतर संबंध बनाने की बात करते रहे हैं और पिछली बार सेना द्वारा उन्हें हटाने के फैसले के पीछे एक घोषित कारण यह भी था।


वैसे सेना का मौजूदा नेतृत्व भी भारत से व्यापार के पक्ष में है। सेनाध्यक्ष जनरल कमर जावेद बाजवा ने चंद महीने पहले इशारा किया था कि पाक सेना को अब भारत से व्यापार करने में कोई ऐतराज नहीं होगा।

उनकी हरी झंडी दिखाने के बाद सरकार के एक अंग ने भारत से कपास और गेहूं के आयात का प्रस्ताव रखा भी, पर तब तक इमरान व बाजवा के रिश्तों में खटास आने लगी थी और इस दिशा में बात आगे नहीं बढ़ी। अब बदली हुई परिस्थितियों में आगे बढ़ा जा सकता है।

बदली परिस्थितियों में भी भारत को यह अपेक्षा नहीं करनी चाहिए कि पाकिस्तान का सैनिक या असैनिक नेतृत्व कश्मीर की बात करना बंद कर देगा। यह कल्पना करना भी वास्तविकता से मुंह मोड़ना होगा कि सेना वहां चल रहे पृथकतावादी आंदोलन को सहयोग करना बंद कर देगा।

पिछले 75 वर्षों में उन्होंने अपनी जनता के मध्य जिस आख्यान को लोकप्रिय बनाया है, उसमें यह मुश्किल ही नहीं, असंभव भी है। जनता को खुश करने के लिए वे कश्मीर का मुद्दा उठाते रहेंगे, लेकिन न तो उनके बोलने में पहले जैसी तल्खी होगी और न ही एफएटीएफ जैसे संगठन उन्हें संसद या मुंबई हमलों को एक बार फिर से दोहराने की इजाजत देंगे।
मेरा मानना है कि अब गेंद भारत के पाले में है। हम हर तरह से बडे़ हैं, सैन्य संतुलन और अर्थव्यवस्था हमारे पक्ष में है। अब बड़प्पन दिखाने की हमारी बारी है। जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 के हटाने पर पाकिस्तान का विरोध औपचारिकता बनकर रह गया है। हमारे थोडे़ से प्रयास से बर्फ पिघल सकती है। शुरुआत व्यापारिक संबंधों से हो सकती है। अफगानिस्तान की तालिबान सरकार भी भारत से पाकिस्तान के रास्ते व्यापार करना चाहती है। यह तीनों के हित में है। पाकिस्तान को कपास व गेहूं की जरूरत है, जो भारत से उसको हमेशा सस्ता पड़ेगा। इसी तरह, स्वास्थ्य पर्यटन का क्षेत्र रहा है, जिसके तहत पाकिस्तानी मरीज बडे़ पैमाने पर भारतीय अस्पतालों में आते रहे हैं। वीसा की मुश्किलों के कारण पिछले वर्षों में उनका भारत आना मुश्किल होता गया है। वीसा में रुकावटों के चलते ही दोनों तरफ के लेखकों, कलाकारों, पत्रकारों या अन्य संस्कृतिकर्मियों का मिलना-जुलना कम हुआ है। संबंधों के इस ठंडेपन की एक कारुणिक परिणति हाल में दिखी, जब अपने जीवन के बेशकीमती साल पाकिस्तानी जेलों में काटकर नफरत की भेंट चढ़ने वाले सरबजीत की बहन दलबीर कौर उसे न्याय दिलाने की इच्छा मन में लिए दुनिया से चली गईं।
बिना इस बहस में पड़े कि इस स्थिति को लाने में किसका दोष बड़ा है, भारत को पहल लेनी चाहिए। डेढ़ साल बाद पाकिस्तान में नए चुनाव होंगे और कोई नहीं कह सकता, इसके बाद कैसी सरकार आएगी? इसी तरह, इस साल के खत्म होने के पहले वहां नया सेनाध्यक्ष आ जाएगा। यह भी किसी को नहीं पता कि भारत को लेकर उसकी नीतियां कैसी होंगी? यही समय है, जब भारत साहसिक राजनय का परिचय देते हुए पाकिस्तान से संबंध सुधारने की कोशिश कर सकता है। एक बार सुधार की रेल चल निकली, तो वैश्विक परिस्थितियां उसे आसानी से बेपटरी नहीं होने देंगी। 

Back to top button

Adblock Detected

Please consider supporting us by disabling your ad blocker