तपस्या में अस्तित्व की खोज

महालया से शरद का संक्रमण काल शुरू होता है, जब सूर्य की किरणों से धरती खूब तपती है, लेकिन रात्रि मधुर होती है। तप में तेज का वास है। तप की साधना से हमारे अंदर का तेज ही मधु बनता है। यह तप ही व्यक्ति का बल है। यह नैतिकता पर अडिग रहने का धैर्य देता है।

आश्विन (क्वार) के पहले पक्ष में पितृ तर्पण से क्लांत मन के लिए व्यक्ति शक्ति की खोज करता है। ऐसे में महालया के साथ एक यज्ञकर्म का पक्ष शुरू होता है, जो पूरे एक पक्ष तक चलता है। इसमें व्यक्ति तप रूपी अग्नि को अपने मन में प्रज्जवलित करता है।

तप रूपांतरित करता है। यह भूख को मिटाता है। भूख ही सारी समस्या का कारण है। यज्ञकर्म से शरीर तपता है, तो उससे रस निकलता है। इस रसधारा में व्यक्ति करुणा और प्रेम को खोजता है, जिसमें मूल आत्म स्वरूप प्रकट होता है।

मान्यता है कि महिषासुर नाम के राक्षस के सर्वनाश के लिए महालया के दिन मां दुर्गा का आह्वान होता है। अमावस्या की सुबह पितरों को विदाई और माता को आमंत्रण दिया जाता है। इसके बाद वह धरती पर आती हैं और नौ दिनों तक अपनी कृपा बरसाती हैं।

महालया के दिन मूर्तिकार मां दुर्गा की आंखों को तैयार करते हैं। यह प्रतीक बताता है कि अब अंतर्यात्रा का समय है। शरीर और मन को अंतर्मुखी कर तप की साधना से शक्ति को प्राप्त करना है। तपस्या का पहला काम है, अपने मन के बंधन को खोलना और आत्मा की ओर आरोहण करना।

शक्ति की यात्रा का पहला पड़ाव तप है। सहन करने की शक्ति को तितिक्षा कहा गया है। यह तितिक्षा भी तप का ही एक रूप है। धैर्यपूर्वक सबकुछ बर्दाश्त करने की क्षमता ही तप है। हरेक व्यक्ति के अंदर के केंद्र पर भगवती की शक्ति है। वह शक्ति निरंतर तपस्यारत है।

उसी तपस्या के बल पर यह शरीर क्रियाशील और गतिमान रहता है। जब भी व्यक्ति अपने दुख के क्षण में, पतन की पराकाष्ठा को पहुंचता है, तो वह शक्ति ही उसे धैर्य प्रदान करती है। उस देवत्व के देह से जुड़ने के कारण ही जीवन आगे बढ़ पाता है।

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