संकट और सवाल

पंजाब कांग्रेस में महत्वाकांक्षी नेताओं की आत्मघाती कोशिशें पार्टी को संकट की ओर धकेल रही हैं। पहले कैप्टन अमरेंद्र पर हमलावर होकर उन्हें इस्तीफा देने को बाध्य करने के बाद चन्नी सरकार से टकराव लेकर महज दो माह बाद राज्य अध्यक्ष पद से इस्तीफा देकर नवजोत सिद्धू ने उन आरोपों की पुष्टि की जो उनके धीर-गंभीर राजनेता न होने को लेकर लगाये जाते रहे हैं।

उनके साथ एक मंत्री व कुछ सहयोगियों के इस्तीफे बता रहे हैं कि वे चन्नी सरकार को मुश्किल में डाल रहे हैं। वर्ष 2017 में स्पष्ट जनादेश पाने वाली कांग्रेस की राह आसन्न चुनाव में मुश्किल दिखायी दे रही है। महत्वाकांक्षाओं के टकराव व सत्ता में पकड़ की होड़ ने पार्टी को मुश्किल में डाल दिया है। निश्चित रूप से इस संकट की जवाबदेही से पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व बच नहीं सकता, जिसने चार साल तक पार्टी सरकार के मुखिया की कारगुजारियों का मूल्यांकन नहीं किया।

देखा जाना चाहिए था कि राज्य सरकार ने उन वादों पर कुछ काम किया जो चुनाव के वक्त पार्टी के घोषणापत्र में शामिल थे। इसमें बेअदबी के आरोपियों के खिलाफ कार्रवाई, नशा तस्करों को राजनीतिक संरक्षण के आरोपों का निस्तारण, अवैध रेत खनन, शराब माफिया पर नकेल आदि वादों पर हुई कार्रवाई का मूल्यांकन होना चाहिए था। इन मुद्दों पर पार्टी में लंबे टकराव व आरोप-प्रत्यारोपों के दौर के बाद नवजोत सिद्धू को पंजाब कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया था।

टकराव फिर भी नहीं थमा और नतीजा कैप्टन के इस्तीफे के रूप में सामने आया। अब जब चन्नी नये मुख्यमंत्री बने हैं तो नई नियुक्तियों को लेकर सिद्धू ने विवाद खड़े कर दिये। यहां तक चरणजीत चन्नी की मुख्यमंत्री की ताजपोशी को भी सिद्धू ने सहजता से नहीं लिया। मंत्रिमंडल में शामिल मंत्रियों तथा महाधिवक्ता की नियुक्ति पर सवाल खड़े किये। जाहिर है जब राज्य में विधानसभा चुनाव में कुछ ही वक्त रह गया है तो ये घटनाक्रम पार्टी की छवि के लिये घातक ही होगा।

निस्संदेह, हालिया घटनाक्रम का यही निष्कर्ष है कि पार्टी आलाकमान ने सिद्धू को कांग्रेस अध्यक्ष बनाकर जो राजनीतिक प्रयोग किया वह दांव महज दो माह में ही उलटा पड़ गया है। केंद्रीय नेतृत्व के फैसले मौजूदा चुनौतियों में खरे नहीं उतरे हैं।

यह साफ है कि कांग्रेस हाईकमान राज्य की राजनीतिक जटिलताओं का सही आकलन नहीं कर पाया। सिद्धू की छवि पहले से ही चंचल व अपरिपक्व व्यवहार की रही है, जिसे जिम्मेदार राजनेता का गुण तो कदापि नहीं माना जा सकता। वहीं हाईकमान ने अकाली-भाजपा गठबंधन सरकार से सत्ता छीनने वाले अनुभवी राजनेता कैप्टन अमरेंद्र के राजनीतिक कौशल का सही मूल्यांकन नहीं किया।

कैप्टन पहले भी कहते रहे हैं कि सुरक्षा की दृष्टि से संवेदनशील सीमावर्ती राज्य पंजाब का नेतृत्व करने में सिद्धू सक्षम नहीं हैं। शायद सिद्धू को उम्मीद थी कि संबल दे रहा केंद्रीय नेतृत्व उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी दे देगा। लेकिन जब आलाकमान ने चरणजीत चन्नी को सत्ता की बागडोर सौंपी दी और मंत्री बनाने व नियुक्तियों में उनकी नहीं चली तो वे धैर्य खोकर अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे बैठे।

लेकिन इस राजनीतिक घटनाक्रम ने राज्य के हाशिये पर गये राजनीतिक दलों को हमलावर होने व अनुकूल जमीन तैयार करने का मौका जरूर उपलब्ध करा दिया। वह भी ऐसे समय में जब विधानसभा चुनाव के चंद महीने बाकी रह गये हैं। पार्टी हाईकमान को सोचना चाहिए था कि भले ही सिद्धू ऊर्जावान हों, सक्रिय हों व सुर्खियां बटोरने की कला जानते हों, लेकिन राजनीति में धीर-गंभीर होना पहली शर्त है।

पुराने व अनुभवी राजनेताओं का कोई विकल्प नहीं होता। पार्टी की रीति-नीतियों का ध्यान रखना होता है। यूं ही तुनकमिजाजी राजनीति में नहीं चलती। फलस्वरूप हालिया इस्तीफे से कांग्रेस खुद को असहज महसूस कर रही है। बृहस्पतिवार को चन्नी व सिद्धू की पंजाब भवन में मुलाकात से उम्मीद थी कि विवाद का पटाक्षेप होगा, लेकिन मीटिंग मे जाने से पहले ट्वीट करके सिद्धू ने चन्नी सरकार की नियुक्तियों पर जिस तरह सवाल उठाये, उससे साफ जाहिर है कि सब कुछ ठीक नहीं है। 

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