बंद के द्वंद्व

कृषि कानूनों के विरोध में सोमवार को किसान संगठनों के आह्वान पर हुए राष्ट्रव्यापी बंद के सफलता के दावे किये गये हैं। पंजाब-हरियाणा के अलावा देश में विपक्ष शासित राज्यों में बंद को सफल बताया गया है। भले ही किसान राजनीतिक दलों से दूरी की बात करते रहे हों, लेकिन इन राज्यों में विपक्षी दलों की पूरी सक्रियता रही।

वे सोशल मीडिया पर बयानबाजी करते नजर आए। इसमें दो राय नहीं कि कोरोना संकट से खस्ताहाल अर्थव्यवस्था के दौर में बंद की तार्किकता को कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता है, लेकिन जब सरकार अन्य विकल्पों को अनसुना करे और संभवत: सबसे लंबे किसान आंदोलन को दस माह हो गये हों तो किसानों का धैर्य चूकना स्वाभाविक है।

सरकार को भी सोचना चाहिए कि कृषि सुधार कानूनों को राष्ट्रपति की स्वीकृति मिले एक साल होने के बाद उस वर्ग में इन कानूनों की स्वीकार्यता क्यों नहीं है, जिनके कथित हित में इन्हें बताया गया था। निस्संदेह, कृषि प्रधान देश में किसान आंदोलन का इतना लंबा खिंचना न तो किसानों के और न ही देश के हित में है।

केंद्र सरकार को भी यह नहीं भूलना चाहिए कि ऐसे दौर में जब खेती-किसानी घाटे का सौदा साबित हो रही है, क्यों किसान लगातार सड़कों पर है। पंजाब के बाद हरियाणा और उत्तर प्रदेश में किसानों की आंदोलन में बढ़ती भागीदारी बता रही है कि किसान ही नहीं, कृषि से जुड़े अन्य तबकों की भावनाएं भी इस आंदोलन में जुड़ रही हैं।

निस्संदेह, इसका असर पंजाब व उत्तर प्रदेश के आसन्न चुनावों पर भी नजर आ सकता है। उत्तर प्रदेश के त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव में भाजपा इसका ट्रेलर देख चुकी है, जिसका असर सिर्फ पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ही नहीं अयोध्या के आसपास के इलाकों में भी नजर आया था।

निस्संदेह, भारत बंद में चालीस से अधिक किसान संगठनों की सक्रियता केंद्र सरकार की चिंता बढ़ाने वाली होगी। संभव है उत्तर प्रदेश के आसन्न चुनाव के चलते आने वाले दिनों में बातचीत की नई पहल होती नजर आये।

लेकिन असली सवाल यह है कि जब किसान नेता कह रहे हैं कि हम बातचीत को तैयार हैं और केंद्र सरकार के मंत्री भी यही कह रहे हैं कि हम तैयार हैं? तो अवरोध कहां हैं? बातचीत सिरे क्यों नहीं चढ़ रही है? एक फोन कॉल की यह दूरी फिर भी क्यों बनी हुई है?

सरकार को भी चाहिए कि वह टकराव को टालने का प्रयास करे। अच्छी बात यह है कि किसान संगठनों द्वारा आहूत बंद शांतिपूर्ण रहा। न तो किसानों ने तल्खी दिखाई और न ही शासन-प्रशासन ने संयम खोया।

लेकिन एक बात तो साफ हो गई है कि किसान लंबी लड़ाई के मूड में हैं और मांगें मनवाये बिना पीछे हटने को तैयार नजर नहीं आते। वह बात अलग है कि बंद के दौरान आम लोग ही प्रभावित हुए। वे न तो बंद के समर्थन में नजर आये और न ही सरकार के अड़ियल रवैये को सही बता रहे हैं।

रोज कमाकर परिवार पालने वाले लोगों को विशेष रूप से ज्यादा परेशानी का सामना करना पड़ा। कहने को किसान नेता जरूरी सेवाओं के लिये छूट की बात करते रहे हैं, लेकिन जब परिवहन व्यवस्था ठप होती है, तो तमाम चीजों पर इसका प्रतिकूल असर पड़ता ही है, जिसका खमियाजा जरूरतमंद आदमी ही भुगतता है।

राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में लगने वाला लंबा जाम इसकी गवाही देता रहा। बहरहाल, अब केंद्र सरकार को भी लचीला रवैया अपनाना चाहिए ताकि भविष्य में किसानों को फिर भारत बंद न बुलाना पड़े। लोकतांत्रिक व्यवस्था में सरकार को जनता के विरोध को संवेदनशील ढंग से देखना चाहिए।

अहिंसक आंदोलन करना हर नागरिक का अधिकार है। शीर्ष अदालत भी कह चुकी है कि असहमति व्यक्ति का अधिकार है। यही लोकतंत्र की खूबसूरती भी है।

बहरहाल किसानों ने केंद्र सरकार को स्पष्ट संकेत दे दिया है कि वे अहिंसक तरीके से आंदोलन को जारी रखेंगे। दिल्ली के दहलीज पर किसानों के धरने से आम आदमी को होने वाली परेशानी को देखते हुए भी सरकार को इस दिशा में बिना वक्त गंवाये पहल करनी चाहिए।

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