नाकामी का पर्दा

यूं तो देश-विदेश के मीडिया में यह बात आम थी कि कोरोना संक्रमण से होने वाली मौतों की वास्तविक संख्या सामने नहीं आ रही है। कई देशी-विदेशी संस्थानों के अध्ययन से भी खुलासा हुआ था कि मरने वालों के सरकारी आंकड़ों तथा वास्तविक आंकड़ों में बहुत अंतर है।

खासकर ग्रामीण इलाकों में जहां जांच व इलाज का नितांत अभाव रहा है, वहां बड़ी संख्या में लोगों के मरने की आशंका जतायी गई। एक वास्तविकता यह भी थी कि उपचार व ऑक्सीजन न मिलने से उपजी बेबसी, श्मशान घाटों पर शवों का दबाव व गंगा में तैरती व घाटों पर दफन लाशों की संख्या सरकारी आंकड़ों से मेल नहीं खा रही थी।

बुधवार को बिहार सरकार ने जिस तरह कोरोना संक्रमण से मरने वालों की संख्या को संशोधित किया, उसने पूरे देश को चौंकाया। इन आंकड़ों से राज्य में एक दिन में कोरोना से मरने वालों की संख्या में करीब चार हजार की बढ़ोतरी हुई।

यह वृद्धि कुल आंकड़ों में 73 फीसदी थी, जिसके चलते राष्ट्रीय स्तर मरने वालों का प्रतिदिन का आंकड़ा छह हजार से अधिक हो गया। यह आंकड़ा पूरी दुनिया में एक दिन में मरने वालों का सबसे बड़ा आंकड़ा है।

दरअसल, पटना हाईकोर्ट ने मृतकों की वास्तविक संख्या सामने न आने के आरोपों पर राज्य को अप्रैल-मई में कोरोना से मरने वालों की संख्या का ऑडिट करने का आदेश दिया। उसके बाद जिलास्तर पर समितियों का गठन किया गया था। जिसके चलते बुधवार को मरने वालों का 3971 का आंकड़ा सामने आया।

दरअसल, इन आंकड़ों में उन मौतों को भी जोड़ा गया जो निजी अस्पतालों तथा होम क्वारंटीन में हुईं। एक बार कोरोना से ठीक हो जाने के बाद होने वाली जटिलता के प्रभावों से हुई मौतें भी इसमें शामिल रही। इसके अलावा वे मौतें भी जो अस्पताल ले जाने के वक्त रास्ते में हुई। निस्संदेह, पहले ही महामारी के दौरान हुई हर मौत आंकड़ों में दर्ज होनी चाहिए थी।

निस्संदेह, ऐसे संकट में आंकड़ों का विश्वसनीय होना बहुत जरूरी है। यहां सवाल बिहार का ही नहीं है, पूरे देश में नये सिरे से संशोधित आंकड़े सामने आने चाहिए। बिहार जैसी पहल हर राज्य में होनी चाहिए। इससे पता चलता है कि राज्य सरकारें अपनी नाकामी पर पर्दा डालने के लिये सही आंकड़ों को सामने नहीं आने देना चाहती।

निस्संदेह कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर भयावह थी और देश का पहले से कमजोर चिकित्सा ढांचा इससे चरमरा गया, लेकिन सरकारों की तरफ से गंभीर पहल तो होनी ही चाहिए थी। लंबे समय से विपक्षी दल और विदेशी मीडिया भारत में कोरोना संक्रमण, ठीक होने वालों तथा मृतकों के आंकड़ों पर सवालिया निशाना लगाता रहा है।

जो बताता है कि राज्य सरकारें महामारी से जुड़े आंकड़ों को सहेजने में गंभीर व सतर्क नहीं रहीं। होना तो यह चाहिए था कि गांव, ब्लॉक व जिलास्तर पर ऐसे आंकड़ों को जुटाने के लिये ईमानदार कोशिश होती। स्थानीय प्रशासन, निजी प्रयासों व अन्य स्वयंसेवी संस्थाओं की मदद से समय रहते वास्तविक आंकड़े जुटाये जाते तो सरकारों की नीति-नीयत पर ऐसे सवाल न उठाये जाते।

निस्संदेह, दूसरी लहर की समाप्ति के बाद सरकारों की आंकड़ों की विश्वसनीयता को लेकर हमले और तेज होंगे। सूचना क्रांति और सोशल मीडिया के दौर में आंकड़ों पर पर्दा डालना मुश्किल है। वहीं दूसरी ओर महामारी के इस दौर में आंकड़ों का भविष्य में भी विशेष महत्व होगा।

संक्रमितों व मृतकों के आंकड़ों से हासिल जानकारी से हमें भविष्य में आने वाली किसी आपदा से लड़ने की तैयारी में भी मदद मिलेगी। यह सरकारों की विश्वसनीयता का सवाल भी है। एक हकीकत यह भी है कि भारत जैसे विशाल व जटिलताओं वाले देश में हर आंकड़ा जुटाना आसान नहीं है, लेकिन सरकारों की तरफ से उपलब्ध संसाधनों के आधार पर ईमानदार कोशिश तो होती नजर आनी चाहिए।

अन्यथा सरकारी आंकड़ों के मायने अविश्वास कहा जाने लगेगा। देश को महामारी में गई हर जान के बारे में जानने का हक है।

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