अर्पण

विकलांगता के चरमोत्कर्ष ऋषि अष्टावक्र को गुरु मानकर राजा जनक बोले, ‘गुरुवर! आप गुरुदक्षिणा में मेरा सारा राजकोष ले लीजिए।’ ऋषि बोले, ‘राजन! यह राजकोष तो प्रजा का है, आपका नहीं।’ जनक बोले, ‘तो आप मेरा राज्य ले लें।’ अष्टावक्र बोले, ‘राज्य अनित्य है, इस पर आपका अधिकार भी अनित्य है।’

जनक ने कहा कि मेरा शरीर आपको अर्पित है। ऋषि ने कहा कि शरीर तो मन के अधीन है। इस पर ऋषि ने राजा जनक से संकल्प करवा कर उनका मन ले लिया और बोले, ‘राजन! अब आपके मन की सभी गतिविधियों पर मेरा अधिकार है, अतः अपना मन मुझे समर्पित करके राजकार्य करो।’ एक सप्ताह तक गुरु-आज्ञा का पालन करने के बाद राजा जनक के भीतर ‘अनासक्त भाव’ उदित हो गया और वे ‘विदेह’ हो गए।

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