शिष्य का धर्म

महाराष्ट्र प्रान्त में रंगु जी नाम के एक सज्जन रहते थे। वे संतों, गुरुओं के पास भटकते हुए आखिर में सन्त तुकाराम जी के पास पहुंचे और उनके शिष्य बन गए। तुकाराम सदैव प्रभु भक्ति में लीन रहते थे।

रंगु जी को ऐसा लगा कि उन्हें यहां पर कुछ भी प्राप्त होने वाला नहीं है। अतएव संत तुकाराम का आश्रम छोड़कर गुरु रामदास के आश्रम में चले गए और उनसे अपना शिष्य बनाने की प्रार्थना की।

गुरु रामदास ने कहा, ‘तुम तो सन्त तुकाराम के पास रहते थे। उन्हें छोड़कर यहां क्यों चले आये?’ रंगु जी ने उत्तर में कहा, ‘गुरुदेव! मैं तीन-चार वर्षों से उनके पास हूं परन्तु सन्त तुकाराम जी ने मुझसे कभी अधिक देर तक बातचीत नहीं की।

वे तो सारे दिन ध्यान में ही तल्लीन रहते हैं। मैं उनसे आखिर तत्व ज्ञान कब लेता। गुरु रामदास जी ने उत्तर दिया, ‘भाई मेरे! सभी लोगों का अपना-अपना मत है। लेना और न लेना तो ग्राहक का भाव होता है, शिष्य का नहीं।

शिष्य का भाव तो समर्पण है और किसको कितना मिलता है, यह तो उसकी योग्यता पर निर्भर है। संत तुकाराम तुमसे बिना बोले भी तुम्हें लगातार उपदेश देते रहे, परन्तु तुमने उसे कभी ग्रहण नहीं किया।

निरन्तर ईश्वर भक्ति करते हुए वे यही तो उपदेश दे रहे हैं कि तुम भगवान का भजन करो। प्रमाद को छोड़ो, जीवन का एक क्षण भी बर्बाद न जाने दो।

अब रंगु जी गुरु रामदास की बात का तत्व समझ गये और सन्त तुकाराम जी के पास वापस आश्रम में भजन-कीर्तन करने लगे। कालांतर में वे बहुत बड़े भक्त कहलाये।

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