बदलती राजनैतिक तस्वीर

कृषि कानूनों के विरोध में दिल्ली की सीमाओं पर लगभग तीन महीने से आंदोलन चल रहा है। अब जबकि सीमाओं पर किसानों की संख्या थोड़ी कम होने लगी है, तो वहीं गांव-गांव में हो रही किसान पंचायतों में भारी भीड़ उमड़ रही है।

केंद्र सरकार का रवैया अब भी वही है। बजट सत्र के पहले हिस्से में भी सरकार ने संसद में अपना रुख साफ कर दिया कि कानून रद्द नहीं होंगे। इधर किसान भी आंदोलन जारी रखने की बात कह चुके हैं और इसी के मद्देनजर 18 फरवरी गुरुवार को कुछ घंटों के लिए रेल रोको आंदोलन चलाया गया। इससे पहले किसानों ने चक्काजाम भी किया था।

किसान इस बात का पूरा ध्यान रख रहे हैं कि उनके आंदोलन के कारण आम जनता को कोई तकलीफ न उठानी पड़े। जब वे दिल्ली की सीमाओं पर आए थे, तब भी सड़क का कुछ हिस्सा खुला रखा था कि आवाजाही बनी रहे, खासकर एंबुलेंस आदि के आने-जाने में कोई रुकावट न आए। जब पुलिस ने बैरिकेडिंग की और कंटीली बाड़ लगाई, तब रास्ते जरूर बाधित हुए।

चक्का जाम के दौरान भी दिल्ली के भीतर किसी तरह का व्यवधान न हो, यह ख्याल किसानों ने रखा। 26 जनवरी को जिस तरह ट्रैक्टर रैली के दौरान घटनाएं घटीं, उसके बाद किसान हरेक कदम सावधानी के साथ रख रहे हैं। रेल रोको आंदोलन के तहत दोपहर 12 से 4 बजे तक देश के कई हिस्सों में किसानों ने रेल संचालन बाधित किया।

सैकड़ों किसान रेल पटरियों पर बैठे रहे। इस वजह से जो ट्रेनें आगे नहीं बढ़ पाईं, उनके यात्रियों के खाने-पीने का इंतजाम भी आंदोलनकारियों ने किया। सत्ता से विरोध और जनता से सहयोग की रचनात्मकता के साथ यह आंदोलन रोज इतिहास में अपनी उपस्थिति मजबूती से दर्ज कराता जा रहा है।

सवाल ये है कि सरकार इस मजबूती को और आंदोलनकारियों की मंशा को कब समझेगी। अब तक सरकार यही साबित करने की कोशिश में लगी रही इस आंदोलन में केवल पंजाब-हरियाणा के किसान शामिल हैं। लेकिन जैसे देश भर में किसान इस आंदोलन से जुड़ते जा रहे हैं, उसमें सरकार का यह दावा ध्वस्त हो रहा है।

सरकार यह कह रही है कि यह किसानों के हित में है, लेकिन किसानों का हित किसमें है, यह पंजाब के निकाय चुनावों में साफ दिख गया। हरियाणा के निकाय चुनावों में भाजपा-जेजेपी गठबंधन को शिकस्त मिली थी, राजस्थान में भी भाजपा को मात मिली, लेकिन भाजपा ने शायद इसके संकेतों पर ध्यान नहीं दिया। अब पंजाब में भाजपा को करारी शिकस्त मिली है।

शिरोमणि अकाली दल और आप भी कांग्रेस के आगे परास्त हो गए। कांग्रेस ने न केवल शानदार जीत हासिल की, बल्कि हिंदू वर्चस्व के इलाकों और शिअद के गढ़ों पर भी अपना कब्जा कर लिया।

इस जीत से कांग्रेस का उत्साहित होना स्वाभाविक है। पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने इसे हरेक पंजाबी की जीत बताया है। उनके नेतृत्व में हुई यह जीत कई मायनों में महत्वपूर्ण है।

इससे अगले विधानसभा चुनावों के लिए कांग्रेस कार्यकर्ताओं के हौसले मजबूत होंगे, वहीं पार्टी के भीतर अमरिंदर सिंह का रुतबा उनके प्रतिद्वंद्वियों पर तारी हो गया है। हालांकि अब कांग्रेस को एक संगठित पार्टी के तौर पर हरेक कदम संभल कर रखने की जरूरत है, क्योंकि अतिउत्साह में ही कई बार गड़बड़ियां हो जाती हैं।

भाजपा के लिए ये नतीजे चेतावनी है कि वह अपने अजेय होने के भ्रम को दूर कर ले। हाल में भाजपा अध्यक्ष जे पी नड्डा ने उत्तरप्रदेश, हरियाणा, राजस्थान के जाट नेताओं को जमीन पर उतरने और कृषि कानूनों के फायदे किसानों को समझाने के निर्देश दिए हैं।

जल्द ही उत्तरप्रदेश में पंचायत चुनाव होने हैं, और जो माहौल इस वक्त है, उसमें भाजपा के लिए जीत की बहुत उम्मीदें नहीं दिख रही हैं। अगले साल उत्तरप्रदेश में विधानसभा चुनाव हैं और किसानों की दशा के साथ-साथ राज्य में कानून-व्यवस्था का जो आलम है, उसमें सपा, बसपा, कांग्रेस सभी दल सरकार को घेरने में लगे हैं।

रालोद से जयंत चौधरी अपना खोया जनाधार जुटाने में लगे हैं, तो प्रियंका गांधी किसान महापंचायतों में शिरकत कर कांग्रेस के पक्ष में माहौल बना रही हैं। कुल मिलाकर यह नजर आ रहा है कि कृषि कानूनों के खिलाफ खड़ा आंदोलन जल्द ही राजनीति की नई तस्वीर देश को दिखा सकता है।

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