दो हृदयों को जोड़ने वाले हैं हनुमानजी

प्रभु ऐसा सोच ही रहे थे कि श्री हनुमान जी कह उठे श्सो सीता कर खोज कराहहि। जहँ तहँ मरकट कोटि पठाइहिश् अर्थात् सुग्रीव से मित्रता करने से मात्र सुग्रीव को ही लाभ नहीं होगा। अपितु आप को भी होगा। क्योंकि वे अपने करोड़ों वानरों को श्री सीता जी की खोज में लगा देंगे।

विगत अंक में हमने देखा कि श्री हनुमान जी प्रभु श्री राम जी को सुग्रीव तक ले जाने हेतु पूरी तरह कमर कसे हुए हैं। और बातों ही बातों में यह नींव रख दी कि हे प्रभु! आप सुग्रीव को अपना मित्र बना लीजिए। अन्यथा वह दास तो आपका है ही। श्रीराम जी हनुमान जी को निहार कर अपनी किसी विशेष सोच में डूबे हैं। वह सोच यह कि क्यों अनेकों जीव जोड़ने की बजाय सिर्फ तोड़ने में ही विश्वास रखते हैं। हमारी अयोध्या नगरी को ही ले लीजिए। मंथरा को आखिर किस बात की कमी थी।

हमने उसे शिशु काल से ही बांचा है। दुराव व विलगता के भाव तो उसमें संस्कारों से ही थे। और अपनी कपट कला का प्रदर्शन वह कितना समय पहले ही कर देती। लेकिन इसके लिए उसे माता कैकेई जैसा उपयुक्त पात्र ही नहीं मिला। उसकी जीवों को मुझसे तोड़ने की कला में महारत तो देखिए कैसे−कैसे उसने कद्रू व विनीता की पौराणिक कथा में भी सौतन भाव वाला विष घोल कर माता कैकेई के मस्तिष्क में भी विष घोल दिया। और इधर श्री हनुमान जी सुग्रीव के हृदय से मेरे प्रति समस्त प्रकार के विष हरने को आतुर हैं।

और कैसे हनुमान जी सुग्रीव को मुझे मेरे मित्र के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। क्योंकि मित्रता तो प्रायः बराबर वालों में ही होती है। तो हनुमान जी ने मुझमें और सुग्रीव में आखिर समानता ढूंढ़ ही ली। यह ठीक भी तो है। क्योंकि मुझमें और सुग्रीव में तो अनेकों ही समानताएं विद्यमान भी हैं। हम दोनों ही थोड़ा अधिक सम्मान के हकदार हैं।

क्योंकि हमें तो राज सिंहासन पर बिठाने की मात्र केवल घोषणा ही हुई थी। लेकिन सिंहासन पर बैठने से पहले ही हमें अयोध्या से निकलना पड़ा। यद्यपि सुग्रीव तो कुछ दिन सिंहासन पर विराजमान भी हुए थे।

दूसरा हम दोनों की पत्नियों पर ही परतंत्रता का कष्ट आन पड़ा। मेरी पत्नी रावण के कब्जे में है और सुग्रीव की पत्नी उसके भाई बालि के कब्जे में है। इस कष्ट में भी सुग्रीव मेरे समान न होकर अधिक ही पीड़ित है।

क्योंकि सुग्रीव की पत्नी को तो बालि को पति मान कर व्यवहार भी करना पड़ रहा है। यद्यपि मेरी सीता पर तो रावण अभी केवल विवाह हेतु दबाव बनाने तक ही सीमित है। पर सब देखते हुए तो हमें शीघ्र ही सुग्रीव की पीड़ा हर लेनी चाहिए। और ऐसी पीड़ाएं जितनी कोई मित्र से सांझा कर सकता है किसी और से नहीं।

प्रभु ऐसा सोच ही रहे थे कि श्री हनुमान जी कह उठे श्सो सीता कर खोज कराहहि। जहँ तहँ मरकट कोटि पठाइहिश् अर्थात् सुग्रीव से मित्रता करने से मात्र सुग्रीव को ही लाभ नहीं होगा। अपितु आप को भी होगा। क्योंकि वे अपने करोड़ों वानरों को श्री सीता जी की खोज में लगा देंगे। देखिए यहाँ श्री हनुमान जी जीव की प्रभु से मित्रता करवाने के लिए जीव के गुणकारी व हितकारी महत्व को रखना बिल्कुल नहीं भूलते।

मानों कह रहे हों कि भले मैंने सुग्रीव के लिए दीन व दास शब्द प्रयोग किए लेकिन आपके दास दीन होने के पश्चात भी असीमित बल रखते हैं। और श्दासश् तो श्स्वामीश् से भी बड़ा होता है। बड़ा इसलिए क्योंकि किसी व्यक्ति को स्वामी होने का पद व अधिकार कब सिद्ध होता हैघ् जब उसका कोई दास अस्तित्व में आता है।

जैसे लौकिक दृष्टि में भले ही माँ अपने पुत्रा से सदैव बड़ी ही रहेगी। लेकिन तात्विक दृष्टि ऐसा नहीं कहती। क्योंकि एक स्त्री तब तक माँ नहीं अपितु केवल स्त्री ही रहेगी। जब तक उसकी कोख से शिशु जन्म नहीं ले लेता।

शिशु जन्म के साथ ही उस स्त्री को माँ होने का अधिकार प्राप्त होता है। अर्थात् माँ के द्वारा सिर्फ एक शिशु का ही जन्म नहीं हुआ अपितु माँ के अस्तित्व का भी जन्म होता है। श्री हनुमान जी मानों कह रहे हों कि प्रभु सुग्रीव भी कोई छोटा नहीं क्योंकि अगर वह दीन नहीं होता तो आपको भला दीनहीन कौन कहता।

वह श्दासश् नहीं होता तो आप श्स्वामीश् कैसे होते। और सबसे अहम बात पर तो आप ने विचार ही नहीं किया। वह यह कि सुग्रीव आपकी पत्नी सीता जी को ढुंढ़वाने में दिन−रात एक कर देंगे। बस आप चलकर उनसे मित्रता तो कीजिए।

श्री हनुमान जी मानों प्रभु के आगे भक्तों का सकारात्मक पक्ष रख रहे थे। वह यह कि प्रभु यहाँ−तहाँ यही बदनाम किया जाता है कि आपकी भक्ति करने पर भक्त को लाभ ही प्राप्त होता है। तो आप अपनी उदाहरण देकर समझा दो कि नहीं भाई केवल भक्त का ही नहीं अपितु हम भगवान को भी जीव से लाभ होता है। देखो श्री सीता जी को ढुंढ़वाकर सुग्रीव जी ने हमें लाभ ही दिया न।

हालांकि श्री हनुमान जी की सुग्रीव से ऐसी कोई चर्चा नहीं हुई कि वे सीताजी को ढूंढ़ कर लाएंगे अथवा नहीं। लेकिन हनुमान जी ने यहाँ दावा अवश्य कर दिया है। वास्तव में यह प्रस्ताव या घोषणा माता सीता जी को ढूंढ़ने के संबंध में नहीं थी। मंतव्य तो यह था कि हे प्रभु! मित्रता में तो लेना देना बना होता है।

तो हमने आपको बता दिया कि आपका मित्र सुग्रीव आपको श्री सीता जी से जरूर मिलवा देगा। और आपके लिए मित्रता में इससे अधिक सुंदर कोई और उपहार हो ही नहीं सकता। लेकिन ध्यान से प्रभु! बदले में आपका भी तो कर्त्तव्य बनता है न कि अपने मित्र को आप भी कुछ ऐसा दें जिसे पा उसका मानसिक कष्ट कटे और साथ में परम सुख की भी अनुभूति हो। और अर्धांगिनी वियोग का कष्ट भला आपसे अधिक और कौन समझ सकता है। और पुनः अर्धांगिनी का मिलन हो तो वह सुख शब्दों में वर्णित नहीं हो सकता।

इसलिए प्रभु हमारे राजा तो आपको यह सहायता करने हेतु तत्पर हैं ही। लेकिन क्या आप भी हैंघ् अगर नहीं सोचा तो मन ही मन पहले संकल्प लें कि आप भी सुग्रीव की इस पीड़ा का हरण करेंगे।

और हे प्रभु! सुग्रीव तो दीन है ही। लेकिन आप श्दीनहीनश् हैं अथवा नहीं यह सिद्ध होना अभी बाकी है। सुग्रीव की दीनता व हीनता से तो आप परिचित हो ही। और उसके पीछे एक ही मुख्य कारण है उनका बड़ा भाई श्बालिश्।

जिसने सुग्रीव से राज्य छीन उन्हें वनों में दर−दर भटकने को विवश कर दिया है। अतः आपका सर्वप्रथम व सर्वोपरि कार्य तो यही बनता है कि आप बालि को दण्डित कर सुग्रीव को पुनः राज सिंहासन पर बिठायें व उसकी दीनता व हीनता हर कर अपने श्दीनहीनश् होने को सिद्ध करें। बस मेरी यही मेरी याचना है।

वाह! दो हृदयों को आपस में जोड़ने की श्री हनुमान जी में क्या गज़ब की कला है। प्रभु और जीव में सामंजस्य बिठाने की इस सुंदर गाथा में श्री हनुमान जी ने कहीं भी स्वयं को सर्वोपरि व केन्द्र में नहीं रखा। न ही कोई व्यक्तिगत स्वार्थ ही साधने की कोशिश की।

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